Saturday 27 October 2012

मलाला यूसुफजई से जंग हारता तालिबान


अमित कुमार सिंह

स दिनों से जिंदगी और मौत से जूझ रही पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई ने आखिरकार गत शुक्रवार को मौत को मात दे दी। मलाला का इलाज कर रहे डॉक्टरों का कहना है कि उसकी हालत में सुधार हो रहा है। वह अब सहारा लेकर खड़ी हो रही है और कुछ लाइनें लिखकर अपनी बात भी कह पा रही है। 15 साल की मासूम मलाला पर हमला करने वाले तालिबानियों के लिए इससे बड़ी हार और क्या हो सकती है कि जिसे वह मारना चाहते थे, वह न सिर्फ स्वस्थ हो रही है बल्कि पूरी दुनिया में उसकी लोकप्रियता का स्तर भी बढ़ गया है। दुनिया भर के लगभग सारे बड़े देशों में मलाला की सलामती के लिए दुआएं मांगी जा रहीं हैं।
उसके पक्ष में और तालिबान के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। भारत के भी कई शहरों में मलाला के पक्ष में प्रदर्शन हुए।
मलाला पहली बार 2009 में सुर्खियों में आई थी। तब मात्र 12 साल की उम्र में इस लड़की ने हिम्मत दिखाई और उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान की स्वात घाटी से उसने बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखनी शुरू की। यह डायरी महिलाओं की शिक्षा के पक्ष में और तालिबान एवं कठमुल्लेपन के विरोध में थी। गुल मकई के छद्म नाम से लिखी गई इस डायरी को लोगों ने खूब पसंद किया। इस डायरी को लिखने के कारण पाकिस्तानी सरकार के ऊपर स्वात घाटी को तालिबान से स्वतंत्र कराने का दबाव बना और मलाला तालिबानों की कट्टर दुश्मन बन बैठी। आज पूरे विश्व से मिल रहे समर्थन से जाहिर होता है कि उसकी आवाज आम जनता की अवाज है, जिसे नफरत और आतंक फैलाना वाला तालिबान पसंद नहीं करता है।
पेशावर से रावलपिंडी और अब बर्मिघम के अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ रही मलाला शायद यह जानती थी कि तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को जन चेतना से ही मिटाया जा सकता है। तभी तो उसने स्वात घाटी की सच्चाई दुनिया तक पहुंचाने के लिए मीडिया को माध्यम के रूप में चुना। यह बहादुर बच्ची बड़ी होकर कानून की पढ़ाई करना चाहती है। वह ऐसे देश का सपना देखती है जहां शिक्षा सर्वोपरि हो और उसकी लड़ाई ऐसा राष्ट्र बनाने को लेकर ही थी। किसी भी समाज की तरक्की के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है।
शिक्षा का विस्तार ही वह हथियार है, जिसकी सहायता से हम सामाजिक बुराइयों से लड़ सकते हैं। हम लोगों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक बना सकते हैं। शिक्षा का विरोध वे लोग करते हैं जिनके मंसूबे गलत होते हैं। ऐसे लोगों को हमेशा डर रहता है, उनके मंसूबों से पर्दा हट जाने का। तालिबान के चेहरे पर पड़ा वही पर्दा मलाला हटाना चाह रही थी। तालिबान को इस बात का भय था कि यदि बच्चे शिक्षित हो गए तो उनकी दुकानदारी बंद हो जाएगी।
इसलिए वह उसकी जान के दुश्मन बन बैठे।
मलाला ने दुनिया के लिए बहुत बड़ा उदाहरण पेश किया है। उसने तालिबान को वह चोट पहुंचाई है जो एक लंबी जंग के बाद अमेरिका भी नहीं पहुंच पाया।
उसने तालिबान का वैचारिक ताना-बाना ही तहस- नहस कर दिया है। तालिबान के वैचारिक समर्थक भी बौखला गए हैं और मलाला पर हमले की घोर निंदा कर रहे हैं। पहली बार पाकिस्तान में तालिबानों को लेकर गुस्सा सड़क पर आ गया है। मलाला के नाम पर कट्टरपंथी मुल्लाओं से लेकर आम जनता गुस्से से भर गई है। पूरा विश्व समुदाय इसकी निंदा कर रहा है, लेकिन यह वक्त बस निंदा करने भर का नहीं है।
समय है मलाला द्वारा उठाई गई आवाज को न दबने देने का। जो अलख मलाला ने जगाई है उसे आगे ले जाने का। ऐसे में पाकिस्तानी सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उसे मलाला के लिए उमड़े प्यार और तालिबान के लिए आम लोगों के जेहन में आई नफरत को एक हथियार बनाना होगा। उसे एक ऐसे पाकिस्तान का निर्माण करना होगा, जो अमन और तरक्की पसंद करता हो। एक ऐसे पाकिस्तान का निर्माण करना होगा, जहां मलाला जैसे बच्चों को हंसने-बोलने, स्कूल जाने और अपने हक की लड़ाई लड़ने की आजादी हो। ताकि जब ये बच्चे जवान हों तो एक बेहतर दुनिया के निर्माण में सहयोग करें, ताकि पाकिस्तान के किसी भी घर, किसी भी दिल में तालिबान जैसे संगठनों को पनाह न मिल सके।
इस दिशा में एक बड़ा कदम पाकिस्तानी सेना को भी उठाना चाहिए। मलाला पर हमले से पूरे देश में जिस तरह लोग भावुक हो रहे हैं, उसका इस्तेमाल सेना को तालिबान को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए करना चाहिए। इस विरोध से एक बात तो जाहिर है कि अब आम लोग तालिबान की ओर से फैलाई जा रही हिंसा के साथ जिंदगी नहीं जीना चाहते हैं। ऐसे में सेना को आतंकवाद के खिलाफ कठोर रणनीति बनानी चाहिए। अगर आर्मी इस समय तालिबान समेत सभी कट्टरपंथी संगठनों और आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करती है तो उसे जनता का सहयोग मिलेगा। पाक सेना को शायद दोबारा ऐसा मौका नहीं मिल पाए।
कुल मिलाकर मलाला यूसुफजई पाकिस्तानी समाज में उन मूल्यों का प्रतीक बनती जा रही है, जिनकी आज के दौर में बहुत जरूरत थी। एक अच्छी बात यह है कि तालिबान विरोध की आवाज पड़ोसी देश अफगानिस्तान से भी आ रही है। वहां के बच्चे भी ‘मैं भी मलाला’ के स्लोगन के साथ प्रदर्शन कर रहे हैं।
लंबे समय तक तालिबानी आतंक और घृणा का शिकार रहे इस देश से ऐसी पहल वाकई में एक नई उम्मीद जगा रही है। अब जरूरत है मलाला के जज्बे को आगे बढ़ाकर अंजाम तक पहुंचाने की। उम्मीद है मलाला जब पूरी तरह स्वस्थ होकर पाकिस्तान वापस लौटेगी तो पूरा अवाम उसके जैसी बच्चियों को स्कूल भेज रहा होगा, उसे तालिबानी फरमान का डर नहीं होगा। वैसे भी अस्पताल में मलाला की सांसे जितनी बेहतर ढंग से वापस लौट रही हैं, तालिबानियों का दम घुटता जा रहा है।