Wednesday 24 September 2014

सांप्रदायिकता की आग में झुलसते देश



दोस्तो यह लेख जून माह में लिखा था, लेकिन ब्लॉक पर नहीं डाल पाई, अब डाल रही हूं, कुछ पुराने आंकड़े इसमें हो सकते हैं,


सांप्रदायिकता किसी भी देश के लिए खतरनाक होती है। इन दिनों दुनिया के कई देश इस आग में झुलस रहे हैं। इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में सांप्रदायिक सोच वाले कट्टरपंथियों ने कहर ढाया हुआ है। इस्लाम के दो धड़ों (शिया और सुन्नी) के बीच फैले द्वंद्व में यह देश फंसे हुए हैं। दोनों धड़ों के तथाकथित धार्मिक ठेकेदारों के बीच फैले संघर्ष में इन देशों की आम जनता पिस रही है, मर रही है।
हाल ही में इराक का उदाहरण हमारे सामने है। सुन्नी संप्रदाय से संबंधित आतंकी संगठन अलकायदा के एक अन्य संगठन आईएसआईएल (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवेंट) ने इराक के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल पर अपना कब्जा  जमा लिया। मोसुल पर कब्जे के बाद इन आतंकियों ने इराक के सर्वाधित तेल उत्पादक क्षेत्र तिकरित और वहां के तेल संयंत्रों पर कब्जा कर लिया। इस संगठन ने तिकरित के लोगों को चेतावनी दी कि वे अपना स्थान छोड़कर चले जाएं। संगठन द्वारा जारी एक वीडियो में कहा गया,  श्माताओ, अपने सैनिक बेटों से कह दो कि वह अपना स्थान छोड़ दें, वरना वे मारे जाएंगे।l मोसुल, तिकरित, सिलाहद्दीन, किरकुक जैसे बड़े शहरों पर आईएसआईएल ने अपना कब्जा कर लिया। इस बीच डर की वजह से पांच लाख से ज्यादा लोग मोसुल छोड़कर चले गए और सैकड़ों लोगों की संघर्ष के दौरान मौत हो गई।
दरअसल, इराक में लड़ाई शिया और सुन्नी के बीच आधिपत्य को लेकर है। देश में शिया नीत सरकार है और प्रधानमंत्री नूरी-अल-मलीकी शिया संप्रदाय से ताल्लुक रखते हैं। सुन्नी संप्रदाय के लोग इराक से अलग होने की मांग कर रहे हैं। यह एक अलग सुन्नी राष्ट्र चाहते हैं। इसे लेकर जब-तब इराक संप्रदायिक संघर्ष अपना रूप दिखाता रहता है और इन सबमें आम जनता अपना सब कुछ  खो देती है।
इससे भी ज्यादा बदतर हालात सीरिया के हैं। यहां पर पिछले चार साल सांप्रदायिक हिंसा फैली हुई है। राष्ट्रपति बसर-अल-असद की सरकार के खिलाफ विद्रोह जारी है। सीरिया में अरब क्रांति के साथ ही संघर्ष की शुरुआत हुई, जो अब तक बदस्तूर जारी है। इस बीच कई देशों में सत्ताएं पलट गईं, लेकिन सीरिया में फैले संघर्ष ने गृहयुद्ध का  रूप ले लिया। असद की शिया सेनाओं के खिलाफ देश के सुन्नी विद्रोहियों के संघर्ष में अब तक एक लाख से ज्यादा लोग मारे गए हैं, जबकि लाखों की तादाद में लोग घायल हुए हैं। सीरिया में  तो हालात यह हैं कि यहां पर आम जनता पर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया गया। हालांकि अभी संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में देश में रासायनिक हथियारों को समाप्त करने का काम चल रहा है। लेकिन यह कहना काफी मुश्किल है कि सीरिया के हालात किस मोड़ पर जाकर थमेंगे।
ऐसा ही कुछ पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जारी है। पाकिस्तान में सुन्नी संप्रदाय से संबंधित अलकायदा, तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन हावी हैं। पाकिस्तान में हाल ही में कराची हवाई अड्डे पर हुआ हमला भी इसी सांप्रदायिक लड़ाई की एक कड़ी माना जा रहा है। पाक में पिछले दिनों शिया बाहुल्य इलाकों को निशाना बनाकर  आतंकी हमले होते रहे हैं। इससे पहले भी पाकिस्तान में अक्सर जुमे की नमाज के बाद शिया मस्जिदों पर हमले हुए हैं, जिनमें हजारों की तादाद में लोग मारे गए। यही हालात अफगानिस्तान में भी नजर आ रहे हैं।
कुल मिलाकर कहा जाए, तो इस्लाम को मानने वाले दो धड़ों के बीच फैली कट्टर सोच की आग इन देशों को जला रही है और इसमें आम जनता मर रही है। इस सांप्रदायिकता की आग को ठंडा कैसे किया जाए, इसके बारे में वैश्विक स्तर पर विचार करने और उसका क्रियान्वयन करने की जरूरत है।

असहिष्णु होते हम....


भावनाएं आहत होने के कारण जितने उपद्रव होते हैं, उनके पीछे वास्तविक कारण वह नहीं होता, जो पेश किया जाता है. अचानक भारतीय राजनीति में लोगों के 'सम्मान' इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि जिन अवधारणाओं पर हिंदुस्तान की बुनियाद रखी गई थी, वह हिलती दिख रही है. क्या सार्वजनिक जीवन में आपको हमेशा देवता की तरह पूजा जाएगा? क्या आपके आलोचक नहीं होंगे? क्या विरोधी नहीं होंगे? क्या हर व्यक्ति को आपकी स्वीकार्यता के लिए मजबूर किया जाएगा? क्या भारत के आजाद होने के बाद से लगातार नेताओं पर टिप्पणी करने पर लोगों को सजाएं दी जाती रही हैं? क्या नेहरू, लोहिया, शास्त्री, इंदिरा आदि पर भी अपमानजनक टिप्पणी के लिए किसी को सजा दी गई थी? यह सही है कि किसी पर अपमानजनक टिप्पणी नहीं करनी चाहिए, लेकिन यदि किसी ने की तो क्या उसकी जान ले ली जाएगी? ऐसा लग रहा है कि समय के साथ हम लगातार असहिष्णु होते जा रहे हैं.
जिन लोगों ने पुणे में युवक की हत्या की, उन्हीं लोगों ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, और अन्य कांग्रेसी नेताओं की कैसीकैसी तस्वीरें शेयर की हैं, पिछले महीने इसके गवाह है. जाहिर है कि इस हत्या का कारण वह नहीं था जो बताया जा रहा है. हत्या के बाद 'एक विकेट गेली' जैसा मैसेज बहुत कुछ कहता है. आज यह नया चलन है कि सोशल मीडिया पर नेताओं पर टिप्पणी आपको न सिर्फ जेल भिजवा सकती है, बल्कि बर्बर तरीके से आपकी जान भी ली जा सकती है. एक फर्जी आईडी से बना फेसबुक अकाउंट, जिस पर बाल ठाकरे और शिवाजी की कथित अपमानजनक फोटो लोड होती है और उन्माद इस कदर भड़कता है कि एक युवक की क्रूर हत्या कर दी जाती है. वह भी उस अपमान के लिए जो भुक्तभोगी ने किया या नहीं, किसी को नहीं पता. क्योंकि वह अकाउंट कहीं बाहर से चलाया जा रहा था! क्या किसी का सम्मान किसी की जान से ज्यादा बड़ा है?
याद कीजिए कि कार्टूनिस्ट शंकर का वह कार्टून जो छह दशक पहले बना था और प्रमुख अखबार में प्रकाशित हुआ था. उसे 2006 में एनसीईआरटीई की किताबों में शामिल किया गया था. दो साल पहले उसपर अचानक विवाद हुआ और योगेंद्र यादव व सुहास पलिशकर ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया. नेताओं पर कार्टून बनाना कोई अनोखी बात नहीं है. दुनिया भर के कार्टूनिस्ट सभी छोटे बड़े नेताओं पर कार्टून बनाते रहे हैं. जाहिर है कि वे चुटकी ही लेते हुए होते हैं.

कहते हैं कि कार्टूनिस्ट केशव शंकर पिल्लै की नेहरू से मित्रता थी. नेहरू ने शंकर को सलाह दी थी कि शंकर, मुझे भी मत बख्शना!लेकिन आज कार्टून आपको जेल भिजवा सकते हैं. क्या हम समय के साथ जितना आगे आए हैं, उतने ही संकीर्ण और असहिष्णु हो गए हैं? ये संकीर्णताएं वह भस्मासुर हैं जो एक दिन हमें लील जाएंगी. यह याद रखिए कि सहिष्णुता लोकतंत्र की जान है और वही इस देश की ताकत है. कठमुल्लापन आपको कहां ले जाता है, पाकिस्तान इसका जीताजागता उदाहरण है. हालिया हत्या पर सियासी गलियारे की चुप्पी भयावह है.दूसरों पर हमले करना एक तरह की व्यक्ति पूजा का नतीजा है कि आप किसी नेता पर कुछ कह देंगे तो आपको मारापीटा जाएगा. डॉक्टर अंबेडकर मानते थे कि व्यक्ति पूजा लोकतंत्र के लिए बड़ी खतरनाक बात है.

Thursday 18 September 2014

क्षेत्रीय विवाद बनेगा पाकिस्तान में टूट की वजह


पाकिस्तान में जातीय और क्षेत्रीय संघर्ष देश की उत्पत्ति के साथ ही शुरू हो गया था. सबसे पहले पूर्वी पाकिस्तान में भाषा का विवाद बांग्लादेश बनने का कारण बना. उसी तरह सिंध प्रांत में सिंधी और ग़ैर-सिंधी, बलूचिस्तान में अलगाववादी आंदोलन और कबायली इलाक़ों में आपसी संघर्ष के अलावा, शिया-सुन्नी फ़साद पाकिस्तान में आम बात है. सिंध में सिंधी-मोहाज़िर संघर्ष की शुरुआत वर्ष 1971 के भाषा विवाद के साथ हुई. अस्सी के दशक में अफगान शरणार्थियों के कराची में बसने के बाद इस विवाद को और मज़बूती मिली. 1984 में मुत्तहदा कौमी मूवमेंट (जो पहले मोहाजिर क़ौमी मूवमेंट के नाम से जानी जाती थी) की स्थापना हुई. इसके बाद यह पार्टी मोहाजिरों के हित की बात करती रही है. कराची में होने वाले जातीय हिंसा के लिए भी इसी को ज़िम्मेदार ठहराया जाता रहा है. वर्ष 1995 में पाकिस्तान सरकार की कार्रवाई के बाद एमक्यूएम हिंसा का रास्ता त्यागकर मुख्य धारा की राजनीति में शामिल तो हो गई, लेकिन कराची में हिंसा से इसका नाता नहीं टूटा है और यह दिनों दिन मज़बूत होता जा रहा है. वहीं अगर बलूचिस्तान की बात जाए तो, इसे वर्ष 1970 में प्रांत का दर्जा दिया गया था. लेकिन यह यहां के बलूच राष्ट्रवादियों को मंजूर नहीं था. लिहाज़ा वर्ष 1973 से 77 तक फ़ौज और बलूच राष्ट्रवादियों के बीच खूनी संघर्ष का लंबा दौर चला. इस संघर्ष में बलूच लिबरेशन आर्मी, बलूच रिपब्लिकन आर्मी और बलूच इत्तिहाद फ़ौज के ख़िलाफ़ खड़े थे. उसके बाद यह संघर्ष वर्ष 2004 से पुनः शुरू हो गया और यह सिलसिला आज भी जारी है. यहां बलूच नेताओं की हत्याएं आम बात है. वर्ष 2006 में डेरा बुग्ती के नवाब और बलूच राष्ट्रवादी अकबर ख़ान बुग्ती की हत्या फ़ौज की कार्रवाई में कर दी गई. नवाब बुग्ती की हत्या के समय पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ की फ़ौजी हुकूमत सत्ता पर क़ाबिज थी. इन हत्याओं ने बलूचिस्तान में पृथकतावादी आंदोलन को और मज़बूती प्रदान की. वैसे बलूचिस्तान में आईएसआई और फ़ौज ने यहां के बहुत सारे नौजवानों को अगवा कर लिया, उनमें कई लोगों की हत्याएं कर दी गईं और कई लोगों का अभी तक कोई पता नहीं है. वैसे पाकिस्तान बलूचिस्तान में अपनी ग़लतियां सुधारने के बजाय यहां जारी हिंसा के लिए भारत पर दोष मढ़ता रहा है. पाकिस्तान सरकार के मुताबिक़, बलूचिस्तान में जारी पृथकतावादी आंदोलन को भारत हवा दे रहा है. फाटा में पाकिस्तानी फ़ौज के तालिबान के ख़िलाफ़ कार्रवाई को दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ कार्रवाई के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि यह इलाक़ा पख्तून पठानों का है. यहां जाति और बिरादरी की जड़ें बहुत मज़बूत हैं. ग़ौरतलब है कि पाकिस्तानी फ़ौज, आईएसआई और सरकारी सेवाओं में पंजाबियों का एकाधिकार है. अगर यह कार्रवाई फ़ौज की तरफ़ से हो रही है तो, यहां के स्थानीय लोग इस लड़ाई को पठान बनाम पंजाबी की शक्ल दे सकते हैं. ऐसे में जो कार्रवाई आतंकवाद के ख़िलाफ़ हो रही है, उसे जातीय संघर्ष में बदलते ज्यादा देर नहीं लगेगी. अगर यहां ऐसा ही चलता रहा तो पाकिस्तान को बंटने से कोई नहीं रोक सकता. बहरहाल, पाकिस्तानी सरकार अपनी ग़लतियों से सबक नहीं सीखती है और उन्हीं ग़लतियों की पुनरावृति करती है, जो उसने पूर्वी पाकिस्तान में की थी तो हालात उससे भी बदतर हो सकते हैं. क्योंकि यहां एक तरफ बलूच अपनी आज़ादी को लेकर बग़ावत का झंडा बुलंद किए हुए हैं, वहीं सिंध में भी अलगाव की हल्की बयार नज़र आ रही है. कुल मिलाकर आज पाकिस्तान क्षेत्रीय और जातीय हिंसा के चपेट में है, जो मुल्क की एकता और संप्रभुता के लिए ख़तरा है.

मेरे एक मित्र अरुण के लेख से  साभार

Sunday 23 February 2014

डर जरूरी है



कुछ दिनों पहले एक टीवी चैनल पर एक कार्यक्रम देख रही थी। कार्यक्रम अपराधियों की सजा पर केंद्रित था। मुख्य बिंदु था फांसी। क्या किसी अपराधी को फांसी की सजा देना, उस अपराध के कम होने की गारंटी है? क्या फांसी जैसी सजा से अपराध रुकते हैं? अभी तक जिन अपराधों में अपराधी को फांसी की सजा हुई है, तो क्या वह अपराध फिर नहीं दोहराए गए? ऐसे ही तमाम मुद्दों पर बहस हो रही थी। कोई सजा के पक्ष में था, तो कोई सजा के विपक्ष में।
     मैं भी सोच रही थी कि सजा किसी अपराध को कम करने की गारंटी तो नहीं है। लेकिन तभी कार्यक्रम को लीड करने वाले एक मशहूर पत्रकार का एक शब्द मेरे कानों में पड़ा और मैं सोच में पड़ गई कि  आखिर ये क्या कह रहे हैं? उन्होंने एक व्यक्ति जो सजा के पक्ष में था और जिसका कहना था कि हां लोगों को डराने के लिए सजा जरूरी है। उसके इस वक्तव्य पर मशहूर पत्रकार महोदय ने कहा कि अगर डराना ही मकसद था, तो लोकतंत्र की क्या जरूरत थी?
    अब तक जो मैं सजा और अपराध की रोकथाम पर सोच रही थी, अचानक एक झटका लगा और मुझे अपने पत्रकार होने पर शर्म महसूस हुई। मैं सोचने लगी कि कैसे यह इतना गैर जिम्मेदराना बयान वह भी एक सार्वजनिक मंच पर दे रहे हैं। महाशय कह रहे हैं कि डराना मकसद है, तो लोकतंत्र क्यों? मेरा उन महाशय जी से पूछना है कि लोकतंत्र का अर्थ क्या है? या फिर उनकी नजर में क्या है? वह क्या सोचते हैं लोकतंत्र के बारे में? क्या लोकतंत्र का अर्थ यह है कि जो मरजी हो, सो करो। फिर चाहे वह किसी मासूम का बलात्कार हो या किसी के घर को जलाना या फिर देश में आतंक फैलाना। आखिर लोकतंत्र है और हमारे संविधान में भी हमें कहीं भी रहने, आने-जाने और काम करने की आजादी मिली है?  तो भई हमारा तो यही काम  है कि हम आतंक फैलाएंगे, मासूम की अस्मिता से खेलेंगे, किसी को मारेंगे और भी बहुत कुछ करेंगे, जो हमारा मन कहेगा वह करेंगे। भई लोकतंत्र जो है। शायद ये महाशय इसी लोकतंत्र की बात कर रहे थे। भई आओ लूट लो खेल रही एक ढाई साल की बच्ची की अस्मत। कर दो उसकी हत्या अधिकार है, तुम्हें लोकतंत्र जो है।
     अरे, आप ये मत समझिए कि मैं किसी सजा के पक्ष में हूं या फिर सजा ही एक मात्र जरिया नजर आता है, मुझे अपराध रोकने का। लेकिन यह तो आप भी मानते होंगे कि बिना डर के प्रीत नहीं होती और रामचरित मानस में भी कहा गया है ‘भए  बिनु होइ न प्रीत।’ मानती हूं सजा से अपराध नहीं रुकेंगे। जरूरत है मानसिकता बदलने की। लेकिन रातों-रात तो लोगों का दिमाग नहीं बदला जा सकता। वक्त लगेगा। तब तक क्या? किसी भी बात को रोकना होता है, तो डर जरूरी होता है और यह डर लोगों में सजा से ही होगा।
      इसके लिए आप बच्चे का उदाहरण देख सकते हैं। एक बच्चा खेल-खेल में मिट्टी खाता है। उसके लिए सही नहीं है यह। उसकी मां उसे बताती है कि बेटा यह गलत बात है, लेकिन बच्चे पर असर नहीं होता। वह फिर मिट्टी खाता है, अब मां उसे दो थप्पड़ मारती है। बच्चा रोता है। लेकिन मां पिघलती नहीं। उसका अंजाम देखा है न आपने। अगली बार जब वह बच्चा मिट्टी खाने के लिए हाथ बढ़ाता है, उसे मां की मार याद आ जाती है और मिट्टी नहीं खाता। फिर धीरे-धीरे उसकी लत छूट जाती है। सो भई डर जरूरी है और डर के लिए सजा जरूरी है। हां, वह सजा कुछ भी हो सकती है, जो आप चाहें वह रख लें। फांसी हो ऐसा जरूरी नहीं। लेकिन आपके संविधान में सबसे क्रूर सजा तो यही है न। आप कुछ और बताओ। वह दिलवाओ। लेकिन डर जरूरी है।

Thursday 23 January 2014

कौन ज्यादा बीहड़ दिल्ली या चंबल ?


अपनी बात की शुरुआत कहां से करूं समझ नहीं आ रहा। उस चंबल की घाटी से, जहां मैं पैदा हुई और जहां के बारे में ढेरों किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। जहां डाकू पैदा होते हैं या फिर तिग्मांशू धूलिया की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के मुख्य किरदार के मुताबिक बागी पैदा होते हैं। जहां दिन में भी जाने में डर लगता है या फिर देश की राजधानी दिल्ली से, जहां आए पांच साल हो चुके हैं और जहां की जिंदगी की आदत हो गई है। जब दिल्ली में सरेआम लुट रही नारी की अस्मिता और दिन-दहाड़े लूट, कत्ल के बारे में सुनती हूं, तो सोचने को विवश हो जाती हूं कि कौन ज्यादा बीहड़ है दिल्ली या फिर चंबल।
शुरू से अब तक आमतौर पर छोटे शहरों या उभरते महानगरों की जिंदगी देखी। टीकमगढ़, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल, हरिद्वार, देहरादून और अब दिल्ली। टीकमगढ़ से दिल्ली तक के सफर में हर जगह एक बात समान थी, वहां महिलाएं अपने घर से निकलते समय किसी अनजाने भय के माहौल में घिरी नहीं रहती थीं। अंधेरा घिरने के पहले लौट आना उनकी आदत भले हो, मजबूरी नहीं थी। वहां के माहौल में मैंने कभी अपने को असुरक्षित महसूस नहीं किया, लेकिन दिल्ली में तो दिन भी डराते हैं और यहां रात तो महिलाओं के लिए खौफ का दूसरा नाम है। 16 दिसंबर 2012 की रात को भूलना आसान नहीं है। देश के रौंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना के बाद कितना हल्ला हुआ। इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन तक हम पहुंच गये। हमारी सुरक्षा ने हमें सारे कानून तोड़ने पर मजबूर कर दिया। उस दौरान हमने डंडे भी खाए, चोट भी लगी। कमेटी बनी, सिफारिशें आईं और कानून भी बने। तब लगा कि अब दिल्ली में रातें नहीं डराएंगी। अब हम सुरक्षित घर से  निकल पाएंगे,  लेकिन एक साल गुजर जाने के बाद भी लड़कियों के प्रति बदनीयती या क्रूरता राजधानी में कम नहीं हुई। आज भी यहां की रातें डराती हैं। दिल वालों की दिल्ली कही जाने वाली राजधानी में अभी भी ऑफिस से निकलते हुए जब थोड़ी देर हो जाती है, तो कदमों की रफ्तार अपने-आप बढ़ जाती है। मनचलों की फबतियों और पीछा करते पैरों के बीच मैट्रो तक का रास्ता जल्द तय करने की जल्दबाजी में कई बार चोट भी लग जाती है, लेकिन दिल का डर कदमों  की रफ्तार को कम नहीं होने देता। सुबह जब अखबार खोलो, तो किसी न किसी पेज पर महिलाओं से बलात्कार और अपहरण या फिर हत्या की खबरें मिल ही जाती हैं। यह खबरें अखबारों और चैनलों की सुर्खियां बनती रहती हैं। ऐसा नहीं कि अब तक मैं जहां रही वहां लूट-मार, छीना-झपटी या महिलाओं के प्रति बदनियती की घटनाएं नहीं होतीं, लड़कियों और औरतों की अस्मत पर घात लगाने वाले दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं, लेकिन दिल्ली में तो ऐसे लोग अभी भी बेलगाम होकर घूम रहे हैं।
जब मैं इस डर के बारे में सोचती हूं तो पाती हूं कि घटनाएं-दुर्घटनाएं हर जगह होती हैं, लेकिन वहां मरहम लगाने वाले लोग होते हैं। खासकर लड़कियों के मामले में तो ऐसा होता है कि पड़ोसी की बेटी को लोग अपनी बेटी की निगाह से देखते हैं। कम से कम अपनी गली में घुसते ही सुरक्षा का अतिरिक्त  भाव मन में पैदा हो जाता है, ऐसा लगता है कि अपना ही घर है। लेकिन यहां गली में घुसने के बाद भी कदमों की रफ्तार धीमी नहीं होती। पता नहीं कौन फब्तियां कस कर चला जाए। हद तो यह है कि मोहल्ले वाले तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। आज जब मेरा दिल्ली में रहना एक सच्चाई है, इस पूरे मामले को नए नजरिए से देखने की जरूरत महसूस करती हूं। इस उदासीनता के पीछे की वजह शायद यह है कि उन्हें पता है कि दिल्ली में रहने वाली अधिकतर कामकाजी लड़कियां दिल्ली की नहीं, बल्कि अन्य राज्यों से आई हैं। लिहाजा बगैर किसी प्रतिक्रिया के वे ऐसी घटनाओं से मुंह मोड़ लेते हैं। स्त्रियों खिलाफ अपराध पूरी दुनिया में होते हैं। विकसित अमेरिका हो या इंग्लैंड, कोई भी इससे शून्य होने का दावा नहीं कर सकता। देश में ही जिन जगहों पर मैं रही वहां ये आंकड़े शून्य नहीं होंगे। फिर भी ऐसा क्या है जो दिल्ली को ‘असुरक्षित’ बनाता है?

Monday 20 January 2014

बड़ी प्यारी थी वो मुलाकात


हाल ही में मां की तबियत ठीक नहीं थी, तो घर जाना हुआ। उन्हें लेकर हम भोपाल जा रहे थे, तो ट्रेन में एक आठ साल के लड़के से मुलाकात हुई। सामने वाली बर्थ पर वह अपनी बड़ी मम्मी (ताई जी) के साथ बैठा था। जब हमने ट्रेन पकड़ी, तो वह सो रहा था। एक घंटे बाद उठा और बैठ गया। वह बीच-बीच में अपनी बड़ी मम्मी से कुछ कह रहा था। उसकी आवाज स्पष्ट नहीं थी। अब तक मुझे यह समझ आ गया था कि वह नॉर्मल नहीं है। उसे बोलने-देखने में समस्या है। उसकी बड़ी मम्मी ने बताया कि वह बचपन से ही अल्पविकसित है। मैंने उससे पूछा तुम्हारा नाम क्या है? तो उसने अस्पष्ट आवाज में जवाब दिया जोएल।  यहां से हमारी बातों का सिलसिला  शुरू हुआ। वह मुझसे बातें कर रहा था और मैं उससे।
सच में यह मेरा पहला अनुभव था कि अविकसित बच्चे से बात करने का। मुझसे करीब 20 साल छोटे बच्चे से  मैं बातें कर रही थी। उसने अपनी बातों और इशारों में  बताया कि वह अमृतसर से आ रहा है और घर जाना है। जब मैंने उसे खाने के लिए चिप्स दिए, तो उसने इनकार किया और बोला ‘घर अभी-अभी खाऊंगा’ मैं उसे समझने की कोशिश करने लगी। तभी वह फिर बोला ‘घर, मछली (बचपन में हम जैसे मछली को अपने दोनों हाथों से बनाकर बताते थे) फ्राई खाऊंगा।’ अब मैं समझ गई थी वह कह रहा था कि अभी नहीं घर जाना है और घर जाकर मछली को फ्राई करके वह खाएगा। उससे बातें करते हुए मैं उसे समझ रही थी। जोएल की बातें मुझे बहुत प्यारी लग रही थीं। बेहद संजीदगी से वह मेरी बातों के जवाब दे रहा था। थोड़ी ही देर में वह मेरा अच्छा दोस्त बन गया और फिर मुझे पता ही नहीं चला कि  कब भोपाल आ गया। जोएल ने न जाने मुझसे इस तीन घंटे के सफर में कितनी बातें की। जब मैं उतरने लगी, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा ‘घर...घर दीदी घर’, वह मुझसे कह रहा था कि दीदी घर चलो। मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा और वादा किया उसके घर आने का। एक महीना हो गया इस बात को। अब पता नहीं अब कभी जोएल से मुलाकात होगी भी या नहीं। लेकिन उसकी मासूमियत से भरा चेहरा आज भी याद आ जाता है। ईश्वर उसे खूब खुश  रखे, यही कामना।