Wednesday 7 March 2012

कौन ज्यादा बीहड़ दिल्ली या चंबल?



अपनी बात की शुरुआत कहां से करूं समझ नहीं आ रहा। उस चंबल की घाटी से, जहां मैं पैदा हुई और जहां के बारे में ढ़ेरों किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। जहां डाकू पैदा होते हैं या फिर तिग्मांशू धूलिया की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के मुख्य किरदार के मुताबिक बागी पैदा होते हैं। जहां दिन में भी जाने में डर लगता है या फिर देश की राजधानी दिल्ली से, जहां आए चार साल हो चुके हैं और जहां की जिंदगी की आदत हो गई है। जब दिल्ली में सरेआम लुट रही नारी की अस्मिता और दिन-दहाड़े लूट, कत्ल के बारे में सुनती हूं, तो सोचने को विवश हो जाती हूं कि कौन ज्यादा बीहड़ है दिल्ली या फिर चंबल।शुरू से अब तक आमतौर पर छोटे शहरों या उभरते महानगरों की जिंदगी देखी। टीकमगढ़, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल, हरिद्वार, देहरादून और अब दिल्ली। टीकमगढ़ से दिल्ली तक के सफर में हर जगह एक बात समान थी, वहां महिलाएं अपने घर से निकलते समय किसी अनजाने भय के माहौल में घिरी नहीं रहती थीं। अंधेरा घिरने के पहले लौट आना उनकी आदत भले हो, मजबूरी नहीं थी। वहां के माहौल में मैंने कभी अपने को असुरक्षित महसूस नहीं किया, लेकिन दिल्ली में तो दिन भी डराते हैं और यहां रात तो महिलाओं के लिए खौफ का दूसरा नाम है। आए दिन महिलाओं से बलात्कार और अपहरण या फिर हत्या की खबरें अखबारों और चैनलों की सुर्खियां बनती रहती हैं। ऐसा नहीं कि वहां लूट-मार, छीना-झपटी या महिलाओं के प्रति बदनियती की घटनाएं नहीं होतीं, लड़कियों और औरतों की अस्मत पर घात लगाने वाले दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं, लेकिन दिल्ली में तो ऐसे लोग बेलगाम होकर घूम रहे हैं। जब मैं इस डर के बारे में सोचती हूं तो पाती हूं कि घटनाएं-दुर्घटनाएं हर जगह होती हैं, लेकिन वहां मरहम लगाने वाले लोग होते हैं। खासकर लड़कियों के मामले में तो ऐसा होता है कि पड़ोसी की बेटी को लोग अपनी बेटी की निगाह से देखते हैं। कम से कम अपनी गली में घुसते ही सुरक्षा का अतिरिक्त  भाव मन में पैदा हो जाता है, ऐसा लगता है कि अपना ही घर है। लेकिन यहां गली में घुसने के बाद भी कदमों की रफ्तार धीमी नहीं होती। पता नहीं कौन फब्तियां कस कर चला जाए। हद तो यह है कि मोहल्ले वाले तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। आज जब मेरा दिल्ली में रहना एक सच्चाई है, इस पूरे मामले को नए नजरिए से देखने की जरूरत महसूस करती हूं। इस उदासीनता के पीछे की वजह शायद यह है कि उन्हें पता है कि दिल्ली में रहने वाली अधिकतर कामकाजी लड़कियां दिल्ली की नहीं, बल्कि अन्य राज्यों से आई हैं। लिहाजा बगैर किसी प्रतिक्रिया के वे ऐसी घटनाओं से मुंह मोड़ लेते हैं। स्त्रियों के खिलाफ अपराध पूरी दुनिया में होते हैं। विकसित अमेरिका हो या इंग्लैंड, कोई भी इससे शून्य होने का दावा नहीं कर सकता। देश में ही जिन जगहों पर मैं रही वहां ये आंकड़े शून्य नहीं होंगे। फिर भी ऐसा क्या है जो दिल्ली को ‘असुरक्षित’ बनाता है?

Monday 5 March 2012

हमें दया नहीं अपना हक चाहिए


अजीब लगता है, हम पर दया करना,
आखिर क्यों? ये भीख देते हो हमें
एक दिन हमारे सम्मान में
देते हो भाषण, करते हो वादे
कहते हो कि हमारे बिना अधूरी है दुनिया
पर सच बताओ क्या इसे महसूस करते हो तुम
रखो दिल पर हाथ और पूछो खुद से
क्या सच में देना चाहते हो हमें सम्मान?
या फिर अपने को महान बताने के लिए
ये भी तुम्हारा एक हथकंडा है
नहीं चाहिए हमें तुम्हारी दया
जानते हैं हम
हमारी क्षमता को
समय-समय पर हमने तुम्हें दिखाई है
अपनी क्षमताएं
तुमने भी माना है हमारा लोहा
पर आह पुरुष का तुम्हारा अहंकार
यह मानने से तुम्हें रोकता है
कि हमसे है तुम्हारा अस्तित्व,
हमसे जुड़ी है तुम्हारी नाभिनाल,
एक गाड़ी के दो पहिए हैं हम दोनों
फिर क्यों तुम हमें बराबर नहीं मानते
क्यों हमें वह दर्जा नहीं देते
जिसके हकदार हैं हम।
हमें दया नहीं अपना हक चाहिए
चाहिए वो स्थान
जो हमारा है और हमारा रहेगा।