Wednesday 18 April 2012

कब खत्म होगा यह इंतजार


आज मैं फिर से हाजिर हूं एक और कहानी के साथ, जिसे भी छला रिश्तों ने।

कब खत्म होगा यह इंतजार

किसी भी गाड़ी की आवाज आती और वह दौड़ पड़ती दरवाजे की ओर। अगर खाना खा रही होती, तो खाना छोड़ देती, कुछ काम कर रही होती, तो काम अधूरा रह जाता, बस एक हॉर्न सुनती और उसकी आंखे घूम जातीं हाफ-वे-होम के मेनगेट की तरफ। लेकिन जब वह वहां पहुंचती, तो कोई नजर न आता और फिर वह रास्ते की ओर ताकती रहती एकटक,  इस आशा के साथ कि शायद वहां से आए उसका बेटा और उसे ले जाए घर। मगर हर बार उसकी उम्मीद अधूरी ही रह जाती।
यह दास्तां है कमला की। पूरा नाम नहीं पता। कमला इसी नाम से उसे पुकारते हैं सब उसे। सीधी-सादी महिला। गुमसुम। उम्र करीब 50 साल। एक बेटे की मां.. है वह। भरा-पूरा परिवार है उसका, लेकिन वह अकेली है।
पति की मौत के बाद कमला ने अपने बेटे को बहुत मुश्किल से पाला। बेटा बड़ा हुआ और नौकरी करने लगा, तो उसे लगा कि अब उसके दु:ख भरे दिन बीत चुके हैं। बेटा भी अपनी मां को बहुत प्यार करता था। बेटे की शादी पर कितनी खुश थी वह। बहू घर में आई, तो उसकी खुशियां दोगुनी हो गई। उसे लगा कि बस अब उसके जीवन में केवल खुशियों की सौगात होगी। कुछ महीनों सब ठीक चला। मगर फिर अचानक से पता नहीं उसकी खुशियों को किसकी नजर लग गई। आए दिन बहू उससे उलझने लगी। जरा-जरा सी बात पर उससे बहू लड़ती। कमला को बड़ा दु:ख होता, लेकिन बेटे-बहू की गृहस्थी में खटपट न हो, इसलिए वह चुप रहती। धीरे-धीरे बहू उसे और जली-कटी सुनाने लगी। इंतहा तो तब हो गई, जब बहू ने उस पर हाथ उठा दिया और बेटे ने भी बहू का पक्ष लिया। कमला को बहुत दु:ख हुआ उस दिन। फिर भी बेटे का मोह उसे छोड़ नहीं रहा था। दिन भर कमला काम करती और बहू उसे पेटभर खाना भी नहीं देती। अब तो मार खाना जैसे उसकी नियति हो गई थी। बेटा भी बहू का साथ देता। कमला कमजोर होती जा रही थी। एक दिन जरा सी बात पर बहू-बेटे ने उसकी खूब पिटाई की। कमला का सब्र टूट पड़ा और उसने सामान उठाकर फेंक दिया, बस बहू-बेटे ने उसे पागल करार दे दिया और भेज दिया पागलखाने। कुछ महीने वहां रहने के बाद जब वह कुछ ठीक हुई , तो हाफ-वे-होम के सदस्य उसे ले आए। मगर यहां से घर जाने का उसका रास्ता तय नहीं हो पाया।
जब मैं कमला से मिली, तो वह गुमसुम सी बैठी रहती थी। धीरे-धीरे उसके बारे में जानकारी मिली। जब भी कोई घर-परिवार की बातें करता, तो कमला तुरंत बेटा कहती और उसकी आंखों में एक चमक आ जाती। करीब चार साल हो गए उससे मिले हुए। कमला कैसी है, यह तो नहीं पता। मगर जब भी उसके बारे में सोचती हूं, तो बस यही सवाल उठता कि क्या कभी खत्म होगा उसका यह इंतजार? क्या कभी कोई गाड़ी कमला को ले जाने के लिए भी रुकेगी हाफ-वे-होम के दरवाजे पर?  

Tuesday 17 April 2012

संबंधों के शूल



संबंध जब सालने लगें, चुभने लगें, सिसकियों में तब्दील होने लगें तो भला कैसे कोई सब्र करे? कब तक इन्हें ढोता रहे। कब तक सुबकता रहेगा? कभी तो बांध टूटता है, कभी तो बाढ़ आती है। और जब ऐसा होता है तो लोग इन्हें पागल कहते हैं। उन्हें हमसे अलग असामान्य करार दिया जाता है। और रोंगटे खड़ी कर देनी वाली  बनती हैं कई कहानियां। ग्वालियर के हॉफ-वे होम में मिले मुङो कुछ ऐसे ही टूटे बिखरे रिस्ते। जिन्हें मैं आपसे साझा करने जा रही हूं। किस्त-ब-किस्त।




शादी या सजा
बोल-चाल में शालीन। एकदम सौम्य, सभ्य व्यवहार। पिता वकील थे, सो खुद भी वकालत का पेशा अपनाया। बीए, एलएलबी किया और फिर वकालत शुरू कर दी। तीन साल वकालत करने के बाद पिता ने उसका विवाह भी एक वकील से कर दिया। शादी के वक्त कितनी खुश थी वह। मन में कई उमंगे हिलोरें ले रही थीं, जीवन के सतरंगी सपनों से सजी थी उसकी दुनिया। क्या-क्या ख्वाब सजाए थे उसने अपने वैवाहिक जीवन के लिए, मगर सब.. टूट गए। बिखर गए सारे सपने और, और.. वह पहुंच गई मानसिक आरोग्य शाला, ग्वालियर जिसे हम ग्वालियर पागलखाना भी कहते हैं। अपनी कहानी बताते-बताते बीथिका फफक पड़ी। बीथिका हां यही नाम है उसका बीथिका चतुव्रेदी।
शादी के वक्त बहुत खुश थी वह। उसने सोचा कि पति वकील हैं, तो उसे प्रैक्टिस में सहयोग भी करेंगे और दोनों साथ मिलकर प्रैक्टिस करेंगे। अपना भविष्य और घर बनाएंगे। इन्हीं सपनों को समेटे बीथिका ने ससुराल में पहला कदम रखा। कुछ दिन तो बड़े अच्छे से बीते, मगर जब उसने प्रैक्टिस शुरू करने की बात कही, तो उसकी जेठानी बिफर पड़ीं। ‘कहीं नहीं करनी है प्रैक्टिस, महारानी जी काम करेंगी और मैं घर में अकेले खटूंगी। बिल्कुल नहीं। कान खोलकर सुन लो, कहीं नहीं जाओगी तुम।’ जेठानी की बातें उसे बहुत अजीब लगीं, जब रात को उसने पति से कहा, तो उन्होंने भी जेठानी का पक्ष लिया।  दरअसल, ससुराल में उसकी जेठानी का वर्चस्व था। बीथिका ने कई बार जेठानी को समझाने की कोशिश की, कहा कि सारा काम करके वह काम पर जाएगी, पर जेठानी को उसका काम पर जाना गवारा न हुआ। आखिरकार बीथिका ने इसे अपनी नियति मान लिया।
मगर शादी को अभी बमुश्किल छह महीने की गुजरे थे कि जेठानी के अत्याचार उस पर बढ़ते गए। जरा सी भी गलती होती, तो उसे सजा के तौर पर घाव दिए जाते। जेठानी उसके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करती। बीथिका जब भी इस बारे में अपने पति से बात करती, तो वह भी उसकी पिटाई करता। बीथिका पढ़ी-लिखी थी, उसे इस बर्ताव से दु:ख होता। शादी को तीन साल बीत चुके थे, मगर बीथिका की नियति नहीं बदल रही थी। रोज ताने, उलाहने, मार खाती और भूखे पेट सो जाती। न पेट भर खाना मिलता न कोई दो शब्द प्यार से बोलने वाला होता। पति भी उसके पास नहीं आता और न ही उसे उसके परिवार से मिलने दिया जाता। कब तक सहती बीथिका, एक दिन टूट गया सब्र का बांध। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया और घरवालों से उसे पागल करार दे दिया। भेज दिया उसे पागलखाने। जहां वह छह महीने रही। वह कहती रही, चिल्लाती रही कि वह पागल नहीं है, मगर किसी ने उसकी एक न सुनी। उसे शॉट लगाए गए और वह तड़पती रही।  चार महीने वहां रही, इस बीच कोई भी उसे न मिलने आया, न किसी ने उसकी खोज खबर ली। और चार महीने बाद वह पहुंची हाफ-वे-होम। जहां पर उसकी काउंसलिंग ली गई और वह अब बिल्कुल ठीक है। हाफ-वे-होम के सदस्यों ने उसके घरवालों से संपर्क किया। ससुराल वालों ने तो अपनाने से मना कर दिया, तब उसके मायके वालों से संपर्क साधा गया और अंतत: जुलाई 2008 में उसका भाई उसे आकर ले गया। बीथिका अपने घर तो चली गई, मगर अपने पीछे सवाल छोड़ गई कि आखिर उसका कसूर क्या था? जिन संबंधों पर उसने भरोसा किया आखिर उन्होंने ही क्यों उसकी जिंदगी में शूल बो दिए?



Thursday 5 April 2012

फैला ज्योति का प्रकाश



घने अंधेरे में दो पैर आगे बढ़ते जा रहे थे। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था, चारों ओर घुप्प अंधेरा था। ज्योति न जाने कहां चली जा रही थी, उसे खुद भी पता नहीं था। दिमाग में एक अजब सी उलझन चल रही थी, पता नहीं.. क्या। मगर, ज्योति का दिमाग उसका साथ नहीं दे रहा था और अनायास ही वह घने जंगल में बढ़ती चली जा रही थी.. बस चली जा रही थी।
ज्योति को याद आ रही थी आज की सुबह.. चारों ओर शोरगुल सुनकर उसकी आंख खुल गई। इतनी-इतनी तेज आवाजें कहा से आ रही हैं, वह इसके बारे में कुछ सोचती, किसी से कुछ पूछती उससे पहले ही बाबूजी के चिल्लाने की आवाज उसके कानों में पड़ी। बाबूजी.. वह बाबूजी जो कभी ऊंची आवाज में बात भी नहीं करते थे। बाबूजी, जो उससे बेहद प्यार करते थे। वह बाबूजी उसे देखकर और ज्यादा लाल हो गए। उनका पारा और चढ़ गया चिल्लाकर बोले ‘उठ गईं महारानी’। आइए, फिर मां को आवाज लगाते हुए बोले ‘अरे जरा महारानी के लिए जलपान की व्यवस्था करो।’ उसे कुछ भी समझ में नहीं आया कि हुआ क्या है? क्यों उसके प्यारे बाबूजी चिल् ला रहे हैं। देखा, तो दोनों बहनें सहमी हुईं खड़ी थीं और मां रो रही थी। सोचते-सोचते ज्योति की आंखें भर आईं, वह और तेज कदमों से बढ़ चली। दिमाग में सुबह की घटना चल रही थी। ज्योति सोचने लगी, उस पर बिफर कर.. बाबूजी बाबूजी बड़बड़ाते बाहर चले गए। उसे कुछ समझ में नहीं आया, तो ज्योति मां के पास गई, उसे देखकर मां भी बिफर पड़ीं। ‘तू मर क्यो नहीं जाती, क्यों हमें जला रही है। ज्योति को कुछ समझ में न आया कि आखिर क्या हुआ है, मां-बाबूजी क्यों उस पर बिफर रहे हैं। तभी मां की आवाज उसके कानों में पड़ी ‘कहां से करें तेरी शादी, लड़के वाले मुंह फाड़ कर दहेज मांग रहे हैं।’ इतना कहकर मां फिर रो पड़ी। ‘मां तो मना कर दो उन्हें, लड़की दे रहे हो फिर दहेज क्यों दें। दहेज देना और लेना दोनों अपराध है।’ हां-हां बड़ी आई कानून बघारने वाली, तुङो अपनी तो फिकर नहीं है, मगर इन दोनों की तो फिकर कर। जरा गोरी पैदा नहीं हो सकती थी, एक तो पैसा नहीं ऊपर से तेरा रंग। आज तेरे बाबूजी की नौकरी भी चली गई। अरे तू नहीं होती, तो कम से कम चिंता तो नहीं होती। अब सारी जमा-पूंजी तुझमें लगा देंगे, तो क्या खाएंगे। मां उसे जली-कटी सुना रही थी। मां की बात सुनकर ज्योति रोते हुए बोली थी ‘मां कैसी बातें कर रही हो तुम, अरे रंग-रूप क्या मेरे हाथ में है। अच्छा मुङो नहीं करनी शादी, तुम छोटी और अंजू के लिए लड़का देख लो।’ ‘अरे वाह क्या खूब कहा महारानी ने शादी नहीं करनी। अरे जब बड़ी घर में बैठी रहेगी, तो छोटियों का ब्याह कैसे होगा और देखा सरला तुमने. क्या कह रही हैं महारानी।’ पता नहीं बाबूजी कहां से आ गए थे और ज्योति के अंतिम शब्द उन्होंने सुन लिए थे। माता- पिता के तीर से शब्दों से ज्योति का हृदय छलनी हो गया था। और वह दौड़कर अपने कमरे में चली गई और फूट-फूट कर रोने लगीं। रोते-रोते ज्योति की आंख लग गई, जब आंख खुली तो रात हो चुकी थी। पूरा दिन गुजर गया था, पर किसी ने उसकी सुध भी न ली थी। ज्योति का दिल जोर-जोर से रोने का हुआ। वह सिसकती रही। जब रात गहरा गई और सब सोने को चले तो ज्योति चुपचाप घर से निकली और चल पड़ी। कहां यह उसे कुछ पता नहीं था। मगर आज वह अपने जीवन को समाप्त कर बाबूजी की परेशानी को कम करना चाहती थी। उसे सोच लिया था कि आज वह अपना जीवन समाप्त कर लेगी, उसके मरने से बाबूजी को उसकी शादी की फिक्र तो नहीं रहेगी, और छोटी-अंजू की शादी भी अच्छे से हो जाएगी। ज्योति.. को याद आ रहा था अपना बचपन। कितने लाड़-प्यार से बाबूजी ने उसका नाम ज्योति रखा था.. हमेशा कहते कि वह उनकी बेटी नहीं बेटा है। उसकी हर जरूरत पूरी करते और ज्योति भी उनकी हर ख्वाहिश को पूरा करती। हमेशा अव्वल आती.. और उसे याद आया वह दिन जब ग्रेजुएशन में उसने यूनिवर्सिटी टॉप किया था, तो बाबूजी कितने खुश हुए थे..। सारे पड़ोसियों को मिठाई बांटी थी और.. और उसकी सफलता की खुशी में उसे एक स्कूटी गिफ्ट की थी। यह सोचकर ज्योति के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई, लेकिन.. तभी उसे याद आई आज का दिन.. जब उसके बाबूजी ने उसके मरने की कामना की थी। ज्योति की आंखों से आंसू झरने लगे.. उसने दुपप्टे से आंखें पोंछी और अपने कदमों को और तेज कर दिया..। घड़ी पर नजर डाली, तो दो बज रहे थे वह और तेज कदमों से चलने लगी। आज वह अपनी जिंदगी को खत्म कर देगी, ताकि उसके बाबूजी खुश रहें.. यही सब सोचते हुए ज्योति बढ़ती चली जा रही थी।  तभी उसे पीछे से आवाज आई ज्योति, ज्योति ..। ज्योति घबरा गई, उसने अपने कदमों को और तेज कर लिया, वह डर तो रही थीं लेकिन साथ ही साथ वह उस आवाज से भी दूर भागना चाहती थी, मौत का खौफ नहीं था उसके अंदर, क्यूंकि घर से अपनी मौत की ख्वाहिश ही तो लेकर निकली थी वो, लेकिन ना जाने उस आवाज से क्यूं घबरा रही थी वो । उसे फिर आवाज आई, अरे ज्योति सुनो तो, ज्योति ने हिम्मत कर पीछे मुड़कर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया। उसने रात के सन्नाटे में जहां हवा की चलने की आवाज भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी वहां अपनी तेज और कांपती आवाज में पूछा था ‘कौन-कौन.. कौन हो तुम’। तभी उन हवाओं के शोर और रात के काले अंधेरे के बीच को चीरती हुई आवाज आई थी मैं .. प्रकाश ..। प्रकाश कौन प्रकाश?  बिना रूके ही पूछ बैठी थी ज्योति और बिना रूके ही फिर अंधेरे में अपना भी एक सवाल उछाल दिया था जिधर से वो आवाज आई थी उसी दिशा में -- मैं  किसी प्रकाश को नहीं जानती। तुम्हारा प्रकाश। मेरा .. प्रकाश श् श् श् श् ..  आश्चर्य और विस्मय के मिश्रित भाव के बीच जोरदार आवाज में फिर चिल्लाई थी ज्योति.. तुम सामने क्यों नहीं आते। मैं तो तुम्हारे साथ ही हूं.. ज्योति। तुम्हारे जीवन का प्रकाश.. तुम्हारे जीवन का प्रकाश ..श् श् श्..। तुम मुङो नहीं देख पा रही हो क्या। ज्योति ने गौर से उस आवाज को सुनने की कोशिश की और काफी जद्दोजहद के बाद उसे समझ में आया कि अरे यह आवाज तो सचमुच उसके अंदर से उसकी आत्मा से ही आ रही है। वह गौर से अपने अंदर से उठती इस आवाज को सुनने लगी थी। उसकी आत्मा की आवाज उससे अब भी सवाल पर सवाल किए जा रहा था, ज्योति कहां जा रही हो तुम ? तुम ये क्या करने जा रही हो? अपने जीवन का अंत करना चाहती हो तुम? क्या तुम बुजदिल हो ? ऐसे अनगिनत सवाल का एक ही जबाब सूझ रहा था ज्योति को ....  हां, तभी तो सब खुश हो पाएंगे मेरे घर में, तभी तो पूरा घर जी पाएगा अपनी बिंदास जिंदगी, अगर मेरे मरने से ही सब कुछ अच्छा हो सकता है तो अपनी मौत लेकर ही मैं सबको खुश देखना चाहूंगी ... बड़े सिसकते अंदाज में रूंधे गले के बीच ज्योति के हलक से इतनी ही आवाज निकल पाई थी। तभी उस आवाज ने फिर से कहा, गलत कह रही हो तुम  ज्योति। सोचो जरा जब तुम्हारी मौत की खबर बाबूजी को मिलेगी, तो उन पर क्या बीतेगी। जीते जी मर जाएंगे वो और अंजू, छोटी। तुम सोचती हो कि उनकी शादियां हो जाएंगी। नहीं ज्योति ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम्हारी मौत की खबर उनकी मौत का पैगाम होगी। अरे सोचो जरा समाज में तरह-तरह की बातें होंगी और फिर उनकी शादियां कैसे होंगी उनकी शादियां सोचो जरा। उस आवाज की बातों में दम था और ज्योति उसकी दमदार आवाज के सामने सकपका गई थी। मगर  हिम्मत कर ज्योति ने कहा नहीं.. झूठ कह रहे हो तुम, ऐसा कुछ नहीं होगा। बाबूजी चाहते हैं मैं मर जाऊं..  तभी तो उन्होंने वह सब कहा। तुम्ही बताओ.. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या-क्या बाबूजी ऐसा कहते सिसक पड़ी ज्योति। तभी धीमें से उस आवाज ने ज्योति को संबोधित करते हुए कहा हौसला रखो ज्योति.. ऐसा कुछ नहीं है, जैसा तुम सोचती हूं। तुम्हारे बाबूजी थोड़ा परेशान हैं बस.। मगर सोचो तुम्हारे इस कदम का क्या असर पड़ेगा सोचो जरा। और ज्योति सोच में पड़ गई तभी धीरे से उस आवाज ने कहा  तुम ज्योति हो, ज्योति..जो दूसरों की जिंदगी में प्रकाश फैलाती है और तुम खुद अपने जीवन प्रकाश को बुझाने चली हो। नहीं.. ज्योति नहीं। ये गलत है, गलत है ये सब।  अब घर जाओ, सबको संभालो और सबकी जिंदगी में अपनी रोशनी भर दो। जाओ घर। न जाने उस आवाज में कैसा सम्मोहन था कि ज्योति के कदम वापस घर की ओर मुड़ पड़े। जब वह घर पहुंची, तो सबेरा हो चुका था और सूर्य का प्रकाश जहां को रोशन कर रहा था। ज्योति ने दरवाजा खोला, तो उसे आश्चर्य हुआ। बाबूजी उसे ढूंढ रहे थे। उसे देखते ही उन्होंने लगे से लगा लिया। मां ने प्यार से सिर पर हाथ फेरा। उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या हुआ? तभी बाबूजी ने कहा अरे तू इंस्पेक्टर बन गई ज्योति। और उनकी आंखें भर आईं। ये देख तेरा पोस्टिंग ऑर्डर.. ज्योति ने बाबूजी के हाथ से लिफाफा लिया और ऑर्डर निकालकर पढ़ने लगी। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उसने दोस्तों से पैसा उधार लेकर जो इंस्पेक्टर की परीक्षा दी थी, उसमें वह पास हो गई है। तभी बाबूजी ने कहा कि तू  सच में हमारे घर की ज्योति है। देख तुङो नौकरी मिल गई। मेरी ज्योति अब इंस्पेक्टर बन गई, तूने मेरा सिर ऊंचा कर दिया बेटा। घर में सबकी खुशी देखकर ज्योति ने दरवाजे की ओर देखा, तो उसे लगा कि उसके प्रकाश से सारा घर रोशन हो रहा है।


Ritu saxena: क्यों बसा है मन में ये खौफ

Ritu saxena: क्यों बसा है मन में ये खौफ

क्यों बसा है मन में ये खौफ



आजकल लड़कियों में एक अलग तरह का डर समाया हुआ है। यह डर उन्हें किसी व्यक्ति विशेष या परिस्थिति से नहीं है, बल्कि यह खौफ है शादी से। अपनी शादी से। यूं तो हमारे यहां मान्यता है कि हर व्यक्ति को एक जीवनसाथी की जरूरत होती है, जो उसके हर सुख-दुख में सहयोग करे और यह साथी विवाह के बाद उसे मिलता है। जिससे आप अपनी हर बात साझा कर सकते हैं, जो आपके सुख-दुख में आपके साथ होता है। लड़कियों के लिए तो शादी और जरूरी समझी जाती है, क्योंकि कहा जाता है कि उन्हें हर मोड़ पर किसी सहारे की जरूरत होती है और यह सहारा होता है उसका पति। यह भी कहते सुना है कि लड़कियां खुली तिजोरी की तरह होती हैं, इसलिए जरूरी है कि कोई हो, जो उनका संरक्षक बने। इतनी सब कहावतों के बाद भी जब कानों में यह शब्द पड़ते हैं कि शादी न बाबा न। अरे बहुत डर लगता है इस रिश्ते से। पता नहीं क्या होगा? तो समझ नहीं आता आखिर क्यों है ये खौफ?
हाल ही में मेरी मुलाकात अपनी कुछ पुरानी सहेलियों से हुई। कॉलेज फ्रेंड्स।  बातें ही चल रही थीं कि अचानक से दीप्ति (जिसके लिए उसके परिवार वाले अभी लड़का ढूंढ रहे हैं) ने कहा यार मैं तो तंग आ गई हूं। शादी की बातें सुन-सुनकर। घरवालों को तो बस मेरी शादी की फिक्र है, रोज सिर्फ एक ही बात शादी-शादी-शादी। तभी उसने धीरे से कहा डर लगता है मुङो। घबरा जाती हूं शादी की बात सुनकर। जब कोई कहता है कि शादी कर लो, तो समझ नहीं पाती कि क्या जवाब दूं। बहुत खौफ लगता है। सिहर उठती हूं मैं यार। इतना कहते हुए उसका गला भर आया। खैर हम सबने उसे सहानुभूति दी। तभी अंजलि (जिसकी शादी अभी तय ही हुई है) का भी स्वर उभरा, यार क्यों जरूरी है शादी? क्या हम अभी नहीं रह रहे हैं अकेले। यार बहुत खुश हैं हम अपनी जिंदगी से। लगता है अब यह जिंदगी खत्म हो जाएगी। यह खुशियां, यह दोस्ती सब खत्म और वह फफक कर रो पड़ी। उनकी बातें सुनकर मैं भी सिहर उठी, क्योंकि मैं भी उसी दौर से गुजर रही हूं, जिससे वह और मुङो भी डर लगता है इस नए रिश्ते के जुड़ने से? थोड़ी देर बात दोनों सामान्य हुईं और हम लोगों ने खाना खाया फिर एक-दूसरे से विदा ली। वो दोनों चली तो गईं, मगर मेरे मन में अनगिनत सवाल उठने लगे कि आखिर क्यों डर लगता है शादी से? क्यों है मन में ये खौफ? आखिर क्यों? सोचने लगी कि कहीं यह अपनी स्वतंत्रता छिनने का डर तो नहीं है? या फिर जिम्मेदारी उठाने के लिए खुद को अपरिपक्व मानना? या कुछ ऐसा, जिसे शब्दों में बयां नहीं कर पा रहे हैं? समझ में नहीं आ रहा था कि जब शादी जरूरी है, तो फिर यह खौफ क्यों? मुङो अपने सवालों के जवाब नहीं मिल  पा रहे हैं, अगर आपके पास हों, तो जरूर बताइए इस खौफ से निजात का तरीका।