Sunday 13 May 2012

याद आती है वो ममता की छांव..



मां एक शब्द , मात्र शब्द मगर इसमें समाया है एक पूरा संसार। कहते हैं कि मां एक वाक्य नहीं है, बल्कि एक पूरा महाकाव्य है। मां.. जब अंतर्मन से निकलती है ये आवाज, तो लगता है कि बस हर दु:ख, हर तकलीफ से मिल गई निजात। जब कभी दु:खी होता है मन, तो पुकार उठती हूं मां. मां. और मां उस समय मुङो बिल्कुल अपने पास नजर आती है। फोन पर उससे बातें करके सारा बोझ हल्का हो जाता है, तरोताजा महसूस करने लगती हूं मैं। एक नई उमंग भर उठती है मन में।
सात सालों से घर से बाहर हूं। अपनी प्यारी मां की गोदी से दूर, उसके आंचल की छांव से दूर। याद आते हैं, वो सब दिन, जब किसी बात पर स्कूल-कॉलेज में सहेलियों से हो जाता था मन-मुटाव या फिर परीक्षा के दिनों में लगता था बहुत डर। कभी-कभी जब मन हो जाता था बहुत निराश, तो मां का आंचल बनता था मेरा आशियाना और उसकी गोदी में सिर रखकर लगता था कि  हर मुश्किल राह हो जाएगी अब आसान। मिल जाएगी मुङो मंजिल आखिर मां जो है मेरे साथ। वो प्यार से उसका बालों को सहलाना, वो रात में अपने गले से लगाना, याद आता है सब। बहुत याद आता है।
आज भी जब उससे बात होती है, तो उसे सिर्फ फिक्र रहती है मेरे खाने की। जैसे कि बचपन में वह मुङो अपने हाथों से खिलाती थी और जब मैं कहती हूं कि मां अब मैं बड़ी हो गई हूं, तो वहां से आवाज आती है, हां बेटा पता है कितनी बड़ी हो गई हो तुम। अच्छा सुनो अपना ध्यान रखना,  खाना टाइम पर खाना और हां धूप बहुत तेज है, बाहर मत निकलना। ऑफिस जाना, तो चुन्नी बांधकर जाना, ऑटो ले लेना, बस से मत जाना। रोज दही लेना और जूस भी। चाय मत पीना।  लस्सी ले लेना। टाइम पर नाश्ता करना, काजू, बादाम पानी में भिगोकर खाना। फल ले रही हो कि  नहीं। न जाने ऐसी कितनी ही नसीहतें वह देती है मुङो। और मैं जवाब में कहती हूं ‘हां मां सब कर रही हूं।’ कभी हल्की सी तबियत खराब होती है, तो तुरंत मां का फोन आ जाता है, ‘तबियत कैसी है तुम्हारी, ठीक तो हो न’ मैं समझ नहीं  पाती कि हजार किलोमीटर दूर बैठी मां को कैसे पता चला कि मेरी तबियत ठीक नहीं है। तभी याद आता है कि वो मां है, जिससे हमारी नाभिनाल जुड़ी हुई है। जिसने गर्भ में पाला है हमें और बस आंखें  हो जाती हैं नम और सिर झुक जाता है उसके सजदे में।
आज हम मदर्स डे मनाते हैं, एक दिन करते हैं मां के नाम। मां को याद करने का ये तो सिर्फ प्रतीक है। मां तो जीवन के हर पल हमारे साथ है। हम कहीं भी रहें, उसका साया हमेशा मौजूद रहता है, हमारी सलामती के लिए। मां को नमन करते हुए मुनव्वर राणा की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं..
‘जब भी कस्ती मेरी सैलाब में आ जाती है, 
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।’

Wednesday 9 May 2012

बुलंद हौसलों की बुलंद दौड़



कहा जाता है कि इंसान में अगर हौंसले हों, तो कुछ भी असंभव नहीं है। अपने हौंसले के दम पर इंसान कुछ भी कर सकता है। हमारे सामने  ऐसे कई उदाहरण हैं, जब शारीरिक तौर पर अक्षम होते हुए भी लोगों ने देश-दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। एक बार फिर हौंसलों की इसी बुलंदी को साबित किया है ब्रिटेन की क्लेयर लोमास ने।
क्लेयर लोमास ने विकलांग होते हुए भी लंदन मैराथन दौड़ पूरी की है। क्लेयर ने अपने बुलंद हौंसलों और मेहनत के दम पर इसे पूरा कर दिखाया। उनके जज्बात को सलाम करने का दिल करता है, हालांकि क्लेयर ने यह दौड़ा 16 दिनों में पूरी की। उनके साथ 36 हजार अन्य  लोगों ने भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। क्लेयर जब यह दौड़ पूरी करके पहुंची, तो हजारों की तादाद में लोगों ने तालियां बजाकर उनका स्वागत किया।
क्लेयर के बारे में एक बात ज्यादा खास है कि वह पहले पेशेवर घुड़सवार थीं। मगर 2006 में घुड़सवारी करते वक्त वह गिर पड़ीं और उनके सीने के नीचे के हिस्से में लकवा मार गया। डॉक्टरों ने घोषित कर दिया था कि क्लेयर अब कभी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाएंगी और उन्हें बाकी की जिंदगी व्हील चेयर  पर ही गुजारनी पड़ेगी। आप समझ सकते हैं कि उस समय क्लेयर के हौंसले पस्त हो गए होंगे, मगर कुछ दिनों बाद वह फिर से संभलीं और उन्होंने कुछ अलग करने की ठानी। क्लेयर फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थीं और उनकी यह इच्छा  पूरी हुई रोबोटिक लेग्स की मदद से। एक दिन इंटरनेट पर क्लेयर अपने  जैसे  लोगों की मदद के लिए खोज कर रही थीं कि उन्हें इस रोबोटिक लेग्स के बारे में पता चला। उन्होंने दोस्तों की मदद से पैसा जुटाया और रोबोटिक वॉकिंग सूट्स खरीदा। शुरुआत में वह दो-तीन कदम ही चल पाती थीं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और मैराधन के लिए कड़ी मेहनत की और सफल हुईं। हालांकि इस  रोबोट लेग्स के साथ चलना आसान नहीं होता है, फिर भी क्लेयर ने इसे कर दिखाया।
क्लेयर लोमास हमारे लिए एक जीती-जागती मिशाल हैं इस बात की कि  अगर इरादे बुलंद हों, तो मंजिल खुद-ब-खुद आपके कदम चूमती है। क्लेयर लोमास को उनकी इस सफलता के लिए बहुत-बहुत बधाई और अभिनंदन। सलाम क्लेयर लोमास।

Wednesday 2 May 2012

अलविदा जोहरा जबीं



ऐ मेरी जोहरा जबीं तुङो मालूम नहीं, तू अब तक हसी और मैं जवां..। यह गाना तो हर पीढ़ी को लुभाता रहा है। इस गाने की जोहरा यानी की अचला सचदेव का सोमवार को निधन हो गया। देर शाम जब यह खबर सुनी, तो एक पल के लिए स्तब्ध रह गई। अचला द्वारा अभिनीत कई किरदार आंखों के सामने घूम गए। अचला का पुणो अस्पताल में पिछले 6 महीने से इलाज चल रहा था। वे 91 साल की थी। दरअसल सितंबर 2011 में काम करते वक्त अचला गिर पड़ी थीं। इससे उनकी बाईं टांग टूट गई थी और सिर में चोट लगने के कारण उनके दिमाग में इंफेक्शन हो गया था। इंफेक्शन की वजह से अचला की आंखों की रोशनी भी चली गई थी। और वह चल-फिर नहीं पा रही थीं।
अचला का जन्म पेशावर में तीन मई 1920 को हुआ था। उन्होंने एक बाल कलाकार के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की। बतौर अभिनेत्री अचला की पहली फिल्म 1938 में आई फैशनेबल वाइफ थी। अचला ने बॉलीवुड में लगभग 150 फिल्में की। उनकी अंतिम फिल्म 2002 में ऋतिक रोशन द्वारा अभिनीत ‘न तुम जानो न हम’ थी। अचला ने यशराज बैनर की कई फिल्मों में काम किया। हिंदी के अलावा अंग्रेजी फिल्मों में भी उन्होंने काम किया। जिनमें 1963 में मार्क रोबसन की फिल्म ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ और मरचेंट इबोरी की फिल्म ‘द हाउसहोल्डर’ प्रमुख हैं। मगर बाद में अचला बॉलीवुड में गुमनामी के अंधेरे में खो गईं।
अपने फिल्मी करियर में उन्होंने सबसे ज्यादा मां का किरदार अदा किया। इसी वजह से अचला को बॉलीवुड की मां भी कहा जाता था। अचला ने देवानंद अभिनीत फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ में देवानंद की मां का किरदार अदा किया था। इसके अलावा 2001 में आई फिल्म ‘कभी खुशी, कभी गम’ में अमिताभ बच्चन की मां और 1995 में आई फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में काजोल की दादी के किरदार के लिए याद किया जाता है। मगर इसे भाग्य की विडंबना ही कहा जाएगा कि बॉलीवुड की इस मां का भरा-पूरा परिवार है। एक बेटी और बेटा है, मगर उनके अंतिम दिनों में कोई भी उनके पास नहीं था। उनके बेटे और बेटी भी उनके साथ नहीं रहते थ्बॉलीवुड तो जैसे अपनी इस मां को  भूल ही गया था। अस्पताल में इंडस्ट्री से कोई भी उनसे मिलने नहीं पहुंचा। अपनी ममता के आंचल में कई किरदारों को पालने वाली यह मां अपने अंतिम समय में बिल्कुल अकेली थी। केवल उनके पारिवारिक मित्र राजीव नंदा ही उनकी नियमित देखभाल कर रहे थे।
अचला कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़ी हुई थीं। उन्होंने अपनी पूरी दौलत सामाजिक संगठनों को दान कर दी थी। जनसेवा फाउंडेशन को तो उन्होंने बीस लाख रुपये नगद और पुणो में अपना निवास 2बीएचके अपार्टमेंट भी दान कर दिया था। अचला के लिए बस इतना ही कहा जा सकता है कि जोहरा जबी चली गईं, मगर उनके द्वारा निभाए गए किरदार हमेशा यादों में जिंदा रहेंगे। अलविदा बॉलीवुड की जोहरा जबीं और मां।