Saturday 27 October 2012

मलाला यूसुफजई से जंग हारता तालिबान


अमित कुमार सिंह

स दिनों से जिंदगी और मौत से जूझ रही पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई ने आखिरकार गत शुक्रवार को मौत को मात दे दी। मलाला का इलाज कर रहे डॉक्टरों का कहना है कि उसकी हालत में सुधार हो रहा है। वह अब सहारा लेकर खड़ी हो रही है और कुछ लाइनें लिखकर अपनी बात भी कह पा रही है। 15 साल की मासूम मलाला पर हमला करने वाले तालिबानियों के लिए इससे बड़ी हार और क्या हो सकती है कि जिसे वह मारना चाहते थे, वह न सिर्फ स्वस्थ हो रही है बल्कि पूरी दुनिया में उसकी लोकप्रियता का स्तर भी बढ़ गया है। दुनिया भर के लगभग सारे बड़े देशों में मलाला की सलामती के लिए दुआएं मांगी जा रहीं हैं।
उसके पक्ष में और तालिबान के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। भारत के भी कई शहरों में मलाला के पक्ष में प्रदर्शन हुए।
मलाला पहली बार 2009 में सुर्खियों में आई थी। तब मात्र 12 साल की उम्र में इस लड़की ने हिम्मत दिखाई और उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान की स्वात घाटी से उसने बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखनी शुरू की। यह डायरी महिलाओं की शिक्षा के पक्ष में और तालिबान एवं कठमुल्लेपन के विरोध में थी। गुल मकई के छद्म नाम से लिखी गई इस डायरी को लोगों ने खूब पसंद किया। इस डायरी को लिखने के कारण पाकिस्तानी सरकार के ऊपर स्वात घाटी को तालिबान से स्वतंत्र कराने का दबाव बना और मलाला तालिबानों की कट्टर दुश्मन बन बैठी। आज पूरे विश्व से मिल रहे समर्थन से जाहिर होता है कि उसकी आवाज आम जनता की अवाज है, जिसे नफरत और आतंक फैलाना वाला तालिबान पसंद नहीं करता है।
पेशावर से रावलपिंडी और अब बर्मिघम के अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ रही मलाला शायद यह जानती थी कि तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को जन चेतना से ही मिटाया जा सकता है। तभी तो उसने स्वात घाटी की सच्चाई दुनिया तक पहुंचाने के लिए मीडिया को माध्यम के रूप में चुना। यह बहादुर बच्ची बड़ी होकर कानून की पढ़ाई करना चाहती है। वह ऐसे देश का सपना देखती है जहां शिक्षा सर्वोपरि हो और उसकी लड़ाई ऐसा राष्ट्र बनाने को लेकर ही थी। किसी भी समाज की तरक्की के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है।
शिक्षा का विस्तार ही वह हथियार है, जिसकी सहायता से हम सामाजिक बुराइयों से लड़ सकते हैं। हम लोगों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक बना सकते हैं। शिक्षा का विरोध वे लोग करते हैं जिनके मंसूबे गलत होते हैं। ऐसे लोगों को हमेशा डर रहता है, उनके मंसूबों से पर्दा हट जाने का। तालिबान के चेहरे पर पड़ा वही पर्दा मलाला हटाना चाह रही थी। तालिबान को इस बात का भय था कि यदि बच्चे शिक्षित हो गए तो उनकी दुकानदारी बंद हो जाएगी।
इसलिए वह उसकी जान के दुश्मन बन बैठे।
मलाला ने दुनिया के लिए बहुत बड़ा उदाहरण पेश किया है। उसने तालिबान को वह चोट पहुंचाई है जो एक लंबी जंग के बाद अमेरिका भी नहीं पहुंच पाया।
उसने तालिबान का वैचारिक ताना-बाना ही तहस- नहस कर दिया है। तालिबान के वैचारिक समर्थक भी बौखला गए हैं और मलाला पर हमले की घोर निंदा कर रहे हैं। पहली बार पाकिस्तान में तालिबानों को लेकर गुस्सा सड़क पर आ गया है। मलाला के नाम पर कट्टरपंथी मुल्लाओं से लेकर आम जनता गुस्से से भर गई है। पूरा विश्व समुदाय इसकी निंदा कर रहा है, लेकिन यह वक्त बस निंदा करने भर का नहीं है।
समय है मलाला द्वारा उठाई गई आवाज को न दबने देने का। जो अलख मलाला ने जगाई है उसे आगे ले जाने का। ऐसे में पाकिस्तानी सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उसे मलाला के लिए उमड़े प्यार और तालिबान के लिए आम लोगों के जेहन में आई नफरत को एक हथियार बनाना होगा। उसे एक ऐसे पाकिस्तान का निर्माण करना होगा, जो अमन और तरक्की पसंद करता हो। एक ऐसे पाकिस्तान का निर्माण करना होगा, जहां मलाला जैसे बच्चों को हंसने-बोलने, स्कूल जाने और अपने हक की लड़ाई लड़ने की आजादी हो। ताकि जब ये बच्चे जवान हों तो एक बेहतर दुनिया के निर्माण में सहयोग करें, ताकि पाकिस्तान के किसी भी घर, किसी भी दिल में तालिबान जैसे संगठनों को पनाह न मिल सके।
इस दिशा में एक बड़ा कदम पाकिस्तानी सेना को भी उठाना चाहिए। मलाला पर हमले से पूरे देश में जिस तरह लोग भावुक हो रहे हैं, उसका इस्तेमाल सेना को तालिबान को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए करना चाहिए। इस विरोध से एक बात तो जाहिर है कि अब आम लोग तालिबान की ओर से फैलाई जा रही हिंसा के साथ जिंदगी नहीं जीना चाहते हैं। ऐसे में सेना को आतंकवाद के खिलाफ कठोर रणनीति बनानी चाहिए। अगर आर्मी इस समय तालिबान समेत सभी कट्टरपंथी संगठनों और आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करती है तो उसे जनता का सहयोग मिलेगा। पाक सेना को शायद दोबारा ऐसा मौका नहीं मिल पाए।
कुल मिलाकर मलाला यूसुफजई पाकिस्तानी समाज में उन मूल्यों का प्रतीक बनती जा रही है, जिनकी आज के दौर में बहुत जरूरत थी। एक अच्छी बात यह है कि तालिबान विरोध की आवाज पड़ोसी देश अफगानिस्तान से भी आ रही है। वहां के बच्चे भी ‘मैं भी मलाला’ के स्लोगन के साथ प्रदर्शन कर रहे हैं।
लंबे समय तक तालिबानी आतंक और घृणा का शिकार रहे इस देश से ऐसी पहल वाकई में एक नई उम्मीद जगा रही है। अब जरूरत है मलाला के जज्बे को आगे बढ़ाकर अंजाम तक पहुंचाने की। उम्मीद है मलाला जब पूरी तरह स्वस्थ होकर पाकिस्तान वापस लौटेगी तो पूरा अवाम उसके जैसी बच्चियों को स्कूल भेज रहा होगा, उसे तालिबानी फरमान का डर नहीं होगा। वैसे भी अस्पताल में मलाला की सांसे जितनी बेहतर ढंग से वापस लौट रही हैं, तालिबानियों का दम घुटता जा रहा है।

Monday 9 July 2012

मनमोहन टाइम आउट, मोदी इन



टाइम मैग्जीन ने इस माह के अपने एशिया अंक में मनमोहन सिंह को  ‘अंडरअचीवर’ यानी उम्मीद से कम प्रदर्शन करने वाला बताया है। कवर पेज पर पत्रिका ने मनमोहन सिंह की तस्वीर छापी है और लिखा है कि भारत को नई शुरुआत की जरूरत। टाइम मैग्जीन ने अपने अंक में कहा है कि मनमोहन सिंह एक अच्छे प्रधानमंत्री साबित नहीं हुए हैं। पत्रिका ने मनमोहन की काबिलियत पर सवाल उठाते कहा है कि क्या मौजूदा पीएम धीमी विकास दर, नीतियां लागू नहीं करने और आर्थिक सुधार के मोर्चे पर नाकाम रहने के आरोपों का बखूबी सामना कर पाएंगे? मैग्जीन ने केंद्र की मौजूदा यूपीए सरकार की आलोचना करते हुए कहा है, ‘रोजगार पैदा करने वाले कानून संसद में अटके हैं और जनप्रतिनिधियों पर से लोगों का भरोसा घटने लगा है, जो चिंता की बात है।’
दिलचस्प बात यह है कि तीन साल पहले इसी पत्रिका ने मनमोहन सिंह को एक ऐसी शख्सियत करार दिया था, जिसने कई लोगों की जिंदगियां बदल दीं और उनके आर्थिक सुधारों की सराहना की थी। हां, पत्रिका ने मनमोहन के पतन का उल्लेख करते हुए लिखा ‘पिछले तीन वषों में, वो शांत आत्मविश्वास जो कभी उनके चेहरे पर चमकता था, लुप्त हो गया है। लगता है वहअपने मंत्रियों को नियंत्रित नहीं कर पा रहे और उनका नया मंत्रलय, वित्त मंत्रलय का अस्थायी कार्यभार, सुधारों को लेकर इच्छुक नहीं है जिससे कि उस उदारीकरण को जारी रखा जा सकेगा जिसकी शुरूआत में उन्होंने भूमिका निभाई थी।’ टाइम से पहले रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स भी प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर चुकी है। कुछ दिनों पहले ही एसएंडपी  ने अपने आकलन में भारत की रेटिंग निगेटिव करने के पीछे भारत के शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया था। एजेंसी के मुताबिक भारत में सुधारों की गाड़ी रुकने के बीच विपक्ष या सहयोगी दल नहीं बल्कि शीर्ष नेतृत्व जिम्मेदार है।
भले ही इस समय प्रधानमंत्री वित्त मंत्रलय संभाल रहे हों और आर्थिक सुधारों की ओर उनका रुझान दिखाई दे रहा हो, लेकिन टाइम का आंकलन तो यही बताता है कि वह हर स्तर पर नाकामयाब रहे हैं।
 मार्च के अंक में टाइम मैग्जीन ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ में कसीदे गढ़े थे और गुजरात और बिहार को रोल मॉडल बताया था। नरेंद्र मोदी की तस्वीर के साथ प्रकाशित अंक में पत्रिका ने लिखा था कि वे 2014 के चुनावों में भाजपा उम्मीदवार के तौर पर राहुल गांधी के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं।
कुल मिलाकर मार्च और इस माह के आकलनों पर गौर किया जाए, तो ऐसा लगता है कि देश में कांग्रेस का विकल्प तैयार हो रहा है और पार्टी से लोगों का मोहभंग हो रहा है। सवाल है कि क्या मोदी राहुल का सशक्त विकल्प बनते जा रहे हैं? क्या कांग्रेस अपने पतन की ओर है और मोदी एक ऐसे व्यक्तित्व के तौर पर सामने आ रहे हैं जिनके हाथों में देश की बागडोर सौंपी जा सकती है?
अब इन आकलनों का क्या असर होगा और जनता का फैसला क्या होगा? यह तो आगामी चुनावों में ही पता चलेगा, फिलहाल मनमोहन जरा संभल कर..

Sunday 13 May 2012

याद आती है वो ममता की छांव..



मां एक शब्द , मात्र शब्द मगर इसमें समाया है एक पूरा संसार। कहते हैं कि मां एक वाक्य नहीं है, बल्कि एक पूरा महाकाव्य है। मां.. जब अंतर्मन से निकलती है ये आवाज, तो लगता है कि बस हर दु:ख, हर तकलीफ से मिल गई निजात। जब कभी दु:खी होता है मन, तो पुकार उठती हूं मां. मां. और मां उस समय मुङो बिल्कुल अपने पास नजर आती है। फोन पर उससे बातें करके सारा बोझ हल्का हो जाता है, तरोताजा महसूस करने लगती हूं मैं। एक नई उमंग भर उठती है मन में।
सात सालों से घर से बाहर हूं। अपनी प्यारी मां की गोदी से दूर, उसके आंचल की छांव से दूर। याद आते हैं, वो सब दिन, जब किसी बात पर स्कूल-कॉलेज में सहेलियों से हो जाता था मन-मुटाव या फिर परीक्षा के दिनों में लगता था बहुत डर। कभी-कभी जब मन हो जाता था बहुत निराश, तो मां का आंचल बनता था मेरा आशियाना और उसकी गोदी में सिर रखकर लगता था कि  हर मुश्किल राह हो जाएगी अब आसान। मिल जाएगी मुङो मंजिल आखिर मां जो है मेरे साथ। वो प्यार से उसका बालों को सहलाना, वो रात में अपने गले से लगाना, याद आता है सब। बहुत याद आता है।
आज भी जब उससे बात होती है, तो उसे सिर्फ फिक्र रहती है मेरे खाने की। जैसे कि बचपन में वह मुङो अपने हाथों से खिलाती थी और जब मैं कहती हूं कि मां अब मैं बड़ी हो गई हूं, तो वहां से आवाज आती है, हां बेटा पता है कितनी बड़ी हो गई हो तुम। अच्छा सुनो अपना ध्यान रखना,  खाना टाइम पर खाना और हां धूप बहुत तेज है, बाहर मत निकलना। ऑफिस जाना, तो चुन्नी बांधकर जाना, ऑटो ले लेना, बस से मत जाना। रोज दही लेना और जूस भी। चाय मत पीना।  लस्सी ले लेना। टाइम पर नाश्ता करना, काजू, बादाम पानी में भिगोकर खाना। फल ले रही हो कि  नहीं। न जाने ऐसी कितनी ही नसीहतें वह देती है मुङो। और मैं जवाब में कहती हूं ‘हां मां सब कर रही हूं।’ कभी हल्की सी तबियत खराब होती है, तो तुरंत मां का फोन आ जाता है, ‘तबियत कैसी है तुम्हारी, ठीक तो हो न’ मैं समझ नहीं  पाती कि हजार किलोमीटर दूर बैठी मां को कैसे पता चला कि मेरी तबियत ठीक नहीं है। तभी याद आता है कि वो मां है, जिससे हमारी नाभिनाल जुड़ी हुई है। जिसने गर्भ में पाला है हमें और बस आंखें  हो जाती हैं नम और सिर झुक जाता है उसके सजदे में।
आज हम मदर्स डे मनाते हैं, एक दिन करते हैं मां के नाम। मां को याद करने का ये तो सिर्फ प्रतीक है। मां तो जीवन के हर पल हमारे साथ है। हम कहीं भी रहें, उसका साया हमेशा मौजूद रहता है, हमारी सलामती के लिए। मां को नमन करते हुए मुनव्वर राणा की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं..
‘जब भी कस्ती मेरी सैलाब में आ जाती है, 
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।’

Wednesday 9 May 2012

बुलंद हौसलों की बुलंद दौड़



कहा जाता है कि इंसान में अगर हौंसले हों, तो कुछ भी असंभव नहीं है। अपने हौंसले के दम पर इंसान कुछ भी कर सकता है। हमारे सामने  ऐसे कई उदाहरण हैं, जब शारीरिक तौर पर अक्षम होते हुए भी लोगों ने देश-दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। एक बार फिर हौंसलों की इसी बुलंदी को साबित किया है ब्रिटेन की क्लेयर लोमास ने।
क्लेयर लोमास ने विकलांग होते हुए भी लंदन मैराथन दौड़ पूरी की है। क्लेयर ने अपने बुलंद हौंसलों और मेहनत के दम पर इसे पूरा कर दिखाया। उनके जज्बात को सलाम करने का दिल करता है, हालांकि क्लेयर ने यह दौड़ा 16 दिनों में पूरी की। उनके साथ 36 हजार अन्य  लोगों ने भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। क्लेयर जब यह दौड़ पूरी करके पहुंची, तो हजारों की तादाद में लोगों ने तालियां बजाकर उनका स्वागत किया।
क्लेयर के बारे में एक बात ज्यादा खास है कि वह पहले पेशेवर घुड़सवार थीं। मगर 2006 में घुड़सवारी करते वक्त वह गिर पड़ीं और उनके सीने के नीचे के हिस्से में लकवा मार गया। डॉक्टरों ने घोषित कर दिया था कि क्लेयर अब कभी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाएंगी और उन्हें बाकी की जिंदगी व्हील चेयर  पर ही गुजारनी पड़ेगी। आप समझ सकते हैं कि उस समय क्लेयर के हौंसले पस्त हो गए होंगे, मगर कुछ दिनों बाद वह फिर से संभलीं और उन्होंने कुछ अलग करने की ठानी। क्लेयर फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थीं और उनकी यह इच्छा  पूरी हुई रोबोटिक लेग्स की मदद से। एक दिन इंटरनेट पर क्लेयर अपने  जैसे  लोगों की मदद के लिए खोज कर रही थीं कि उन्हें इस रोबोटिक लेग्स के बारे में पता चला। उन्होंने दोस्तों की मदद से पैसा जुटाया और रोबोटिक वॉकिंग सूट्स खरीदा। शुरुआत में वह दो-तीन कदम ही चल पाती थीं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और मैराधन के लिए कड़ी मेहनत की और सफल हुईं। हालांकि इस  रोबोट लेग्स के साथ चलना आसान नहीं होता है, फिर भी क्लेयर ने इसे कर दिखाया।
क्लेयर लोमास हमारे लिए एक जीती-जागती मिशाल हैं इस बात की कि  अगर इरादे बुलंद हों, तो मंजिल खुद-ब-खुद आपके कदम चूमती है। क्लेयर लोमास को उनकी इस सफलता के लिए बहुत-बहुत बधाई और अभिनंदन। सलाम क्लेयर लोमास।

Wednesday 2 May 2012

अलविदा जोहरा जबीं



ऐ मेरी जोहरा जबीं तुङो मालूम नहीं, तू अब तक हसी और मैं जवां..। यह गाना तो हर पीढ़ी को लुभाता रहा है। इस गाने की जोहरा यानी की अचला सचदेव का सोमवार को निधन हो गया। देर शाम जब यह खबर सुनी, तो एक पल के लिए स्तब्ध रह गई। अचला द्वारा अभिनीत कई किरदार आंखों के सामने घूम गए। अचला का पुणो अस्पताल में पिछले 6 महीने से इलाज चल रहा था। वे 91 साल की थी। दरअसल सितंबर 2011 में काम करते वक्त अचला गिर पड़ी थीं। इससे उनकी बाईं टांग टूट गई थी और सिर में चोट लगने के कारण उनके दिमाग में इंफेक्शन हो गया था। इंफेक्शन की वजह से अचला की आंखों की रोशनी भी चली गई थी। और वह चल-फिर नहीं पा रही थीं।
अचला का जन्म पेशावर में तीन मई 1920 को हुआ था। उन्होंने एक बाल कलाकार के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की। बतौर अभिनेत्री अचला की पहली फिल्म 1938 में आई फैशनेबल वाइफ थी। अचला ने बॉलीवुड में लगभग 150 फिल्में की। उनकी अंतिम फिल्म 2002 में ऋतिक रोशन द्वारा अभिनीत ‘न तुम जानो न हम’ थी। अचला ने यशराज बैनर की कई फिल्मों में काम किया। हिंदी के अलावा अंग्रेजी फिल्मों में भी उन्होंने काम किया। जिनमें 1963 में मार्क रोबसन की फिल्म ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ और मरचेंट इबोरी की फिल्म ‘द हाउसहोल्डर’ प्रमुख हैं। मगर बाद में अचला बॉलीवुड में गुमनामी के अंधेरे में खो गईं।
अपने फिल्मी करियर में उन्होंने सबसे ज्यादा मां का किरदार अदा किया। इसी वजह से अचला को बॉलीवुड की मां भी कहा जाता था। अचला ने देवानंद अभिनीत फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ में देवानंद की मां का किरदार अदा किया था। इसके अलावा 2001 में आई फिल्म ‘कभी खुशी, कभी गम’ में अमिताभ बच्चन की मां और 1995 में आई फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में काजोल की दादी के किरदार के लिए याद किया जाता है। मगर इसे भाग्य की विडंबना ही कहा जाएगा कि बॉलीवुड की इस मां का भरा-पूरा परिवार है। एक बेटी और बेटा है, मगर उनके अंतिम दिनों में कोई भी उनके पास नहीं था। उनके बेटे और बेटी भी उनके साथ नहीं रहते थ्बॉलीवुड तो जैसे अपनी इस मां को  भूल ही गया था। अस्पताल में इंडस्ट्री से कोई भी उनसे मिलने नहीं पहुंचा। अपनी ममता के आंचल में कई किरदारों को पालने वाली यह मां अपने अंतिम समय में बिल्कुल अकेली थी। केवल उनके पारिवारिक मित्र राजीव नंदा ही उनकी नियमित देखभाल कर रहे थे।
अचला कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़ी हुई थीं। उन्होंने अपनी पूरी दौलत सामाजिक संगठनों को दान कर दी थी। जनसेवा फाउंडेशन को तो उन्होंने बीस लाख रुपये नगद और पुणो में अपना निवास 2बीएचके अपार्टमेंट भी दान कर दिया था। अचला के लिए बस इतना ही कहा जा सकता है कि जोहरा जबी चली गईं, मगर उनके द्वारा निभाए गए किरदार हमेशा यादों में जिंदा रहेंगे। अलविदा बॉलीवुड की जोहरा जबीं और मां।

Wednesday 18 April 2012

कब खत्म होगा यह इंतजार


आज मैं फिर से हाजिर हूं एक और कहानी के साथ, जिसे भी छला रिश्तों ने।

कब खत्म होगा यह इंतजार

किसी भी गाड़ी की आवाज आती और वह दौड़ पड़ती दरवाजे की ओर। अगर खाना खा रही होती, तो खाना छोड़ देती, कुछ काम कर रही होती, तो काम अधूरा रह जाता, बस एक हॉर्न सुनती और उसकी आंखे घूम जातीं हाफ-वे-होम के मेनगेट की तरफ। लेकिन जब वह वहां पहुंचती, तो कोई नजर न आता और फिर वह रास्ते की ओर ताकती रहती एकटक,  इस आशा के साथ कि शायद वहां से आए उसका बेटा और उसे ले जाए घर। मगर हर बार उसकी उम्मीद अधूरी ही रह जाती।
यह दास्तां है कमला की। पूरा नाम नहीं पता। कमला इसी नाम से उसे पुकारते हैं सब उसे। सीधी-सादी महिला। गुमसुम। उम्र करीब 50 साल। एक बेटे की मां.. है वह। भरा-पूरा परिवार है उसका, लेकिन वह अकेली है।
पति की मौत के बाद कमला ने अपने बेटे को बहुत मुश्किल से पाला। बेटा बड़ा हुआ और नौकरी करने लगा, तो उसे लगा कि अब उसके दु:ख भरे दिन बीत चुके हैं। बेटा भी अपनी मां को बहुत प्यार करता था। बेटे की शादी पर कितनी खुश थी वह। बहू घर में आई, तो उसकी खुशियां दोगुनी हो गई। उसे लगा कि बस अब उसके जीवन में केवल खुशियों की सौगात होगी। कुछ महीनों सब ठीक चला। मगर फिर अचानक से पता नहीं उसकी खुशियों को किसकी नजर लग गई। आए दिन बहू उससे उलझने लगी। जरा-जरा सी बात पर उससे बहू लड़ती। कमला को बड़ा दु:ख होता, लेकिन बेटे-बहू की गृहस्थी में खटपट न हो, इसलिए वह चुप रहती। धीरे-धीरे बहू उसे और जली-कटी सुनाने लगी। इंतहा तो तब हो गई, जब बहू ने उस पर हाथ उठा दिया और बेटे ने भी बहू का पक्ष लिया। कमला को बहुत दु:ख हुआ उस दिन। फिर भी बेटे का मोह उसे छोड़ नहीं रहा था। दिन भर कमला काम करती और बहू उसे पेटभर खाना भी नहीं देती। अब तो मार खाना जैसे उसकी नियति हो गई थी। बेटा भी बहू का साथ देता। कमला कमजोर होती जा रही थी। एक दिन जरा सी बात पर बहू-बेटे ने उसकी खूब पिटाई की। कमला का सब्र टूट पड़ा और उसने सामान उठाकर फेंक दिया, बस बहू-बेटे ने उसे पागल करार दे दिया और भेज दिया पागलखाने। कुछ महीने वहां रहने के बाद जब वह कुछ ठीक हुई , तो हाफ-वे-होम के सदस्य उसे ले आए। मगर यहां से घर जाने का उसका रास्ता तय नहीं हो पाया।
जब मैं कमला से मिली, तो वह गुमसुम सी बैठी रहती थी। धीरे-धीरे उसके बारे में जानकारी मिली। जब भी कोई घर-परिवार की बातें करता, तो कमला तुरंत बेटा कहती और उसकी आंखों में एक चमक आ जाती। करीब चार साल हो गए उससे मिले हुए। कमला कैसी है, यह तो नहीं पता। मगर जब भी उसके बारे में सोचती हूं, तो बस यही सवाल उठता कि क्या कभी खत्म होगा उसका यह इंतजार? क्या कभी कोई गाड़ी कमला को ले जाने के लिए भी रुकेगी हाफ-वे-होम के दरवाजे पर?  

Tuesday 17 April 2012

संबंधों के शूल



संबंध जब सालने लगें, चुभने लगें, सिसकियों में तब्दील होने लगें तो भला कैसे कोई सब्र करे? कब तक इन्हें ढोता रहे। कब तक सुबकता रहेगा? कभी तो बांध टूटता है, कभी तो बाढ़ आती है। और जब ऐसा होता है तो लोग इन्हें पागल कहते हैं। उन्हें हमसे अलग असामान्य करार दिया जाता है। और रोंगटे खड़ी कर देनी वाली  बनती हैं कई कहानियां। ग्वालियर के हॉफ-वे होम में मिले मुङो कुछ ऐसे ही टूटे बिखरे रिस्ते। जिन्हें मैं आपसे साझा करने जा रही हूं। किस्त-ब-किस्त।




शादी या सजा
बोल-चाल में शालीन। एकदम सौम्य, सभ्य व्यवहार। पिता वकील थे, सो खुद भी वकालत का पेशा अपनाया। बीए, एलएलबी किया और फिर वकालत शुरू कर दी। तीन साल वकालत करने के बाद पिता ने उसका विवाह भी एक वकील से कर दिया। शादी के वक्त कितनी खुश थी वह। मन में कई उमंगे हिलोरें ले रही थीं, जीवन के सतरंगी सपनों से सजी थी उसकी दुनिया। क्या-क्या ख्वाब सजाए थे उसने अपने वैवाहिक जीवन के लिए, मगर सब.. टूट गए। बिखर गए सारे सपने और, और.. वह पहुंच गई मानसिक आरोग्य शाला, ग्वालियर जिसे हम ग्वालियर पागलखाना भी कहते हैं। अपनी कहानी बताते-बताते बीथिका फफक पड़ी। बीथिका हां यही नाम है उसका बीथिका चतुव्रेदी।
शादी के वक्त बहुत खुश थी वह। उसने सोचा कि पति वकील हैं, तो उसे प्रैक्टिस में सहयोग भी करेंगे और दोनों साथ मिलकर प्रैक्टिस करेंगे। अपना भविष्य और घर बनाएंगे। इन्हीं सपनों को समेटे बीथिका ने ससुराल में पहला कदम रखा। कुछ दिन तो बड़े अच्छे से बीते, मगर जब उसने प्रैक्टिस शुरू करने की बात कही, तो उसकी जेठानी बिफर पड़ीं। ‘कहीं नहीं करनी है प्रैक्टिस, महारानी जी काम करेंगी और मैं घर में अकेले खटूंगी। बिल्कुल नहीं। कान खोलकर सुन लो, कहीं नहीं जाओगी तुम।’ जेठानी की बातें उसे बहुत अजीब लगीं, जब रात को उसने पति से कहा, तो उन्होंने भी जेठानी का पक्ष लिया।  दरअसल, ससुराल में उसकी जेठानी का वर्चस्व था। बीथिका ने कई बार जेठानी को समझाने की कोशिश की, कहा कि सारा काम करके वह काम पर जाएगी, पर जेठानी को उसका काम पर जाना गवारा न हुआ। आखिरकार बीथिका ने इसे अपनी नियति मान लिया।
मगर शादी को अभी बमुश्किल छह महीने की गुजरे थे कि जेठानी के अत्याचार उस पर बढ़ते गए। जरा सी भी गलती होती, तो उसे सजा के तौर पर घाव दिए जाते। जेठानी उसके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करती। बीथिका जब भी इस बारे में अपने पति से बात करती, तो वह भी उसकी पिटाई करता। बीथिका पढ़ी-लिखी थी, उसे इस बर्ताव से दु:ख होता। शादी को तीन साल बीत चुके थे, मगर बीथिका की नियति नहीं बदल रही थी। रोज ताने, उलाहने, मार खाती और भूखे पेट सो जाती। न पेट भर खाना मिलता न कोई दो शब्द प्यार से बोलने वाला होता। पति भी उसके पास नहीं आता और न ही उसे उसके परिवार से मिलने दिया जाता। कब तक सहती बीथिका, एक दिन टूट गया सब्र का बांध। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया और घरवालों से उसे पागल करार दे दिया। भेज दिया उसे पागलखाने। जहां वह छह महीने रही। वह कहती रही, चिल्लाती रही कि वह पागल नहीं है, मगर किसी ने उसकी एक न सुनी। उसे शॉट लगाए गए और वह तड़पती रही।  चार महीने वहां रही, इस बीच कोई भी उसे न मिलने आया, न किसी ने उसकी खोज खबर ली। और चार महीने बाद वह पहुंची हाफ-वे-होम। जहां पर उसकी काउंसलिंग ली गई और वह अब बिल्कुल ठीक है। हाफ-वे-होम के सदस्यों ने उसके घरवालों से संपर्क किया। ससुराल वालों ने तो अपनाने से मना कर दिया, तब उसके मायके वालों से संपर्क साधा गया और अंतत: जुलाई 2008 में उसका भाई उसे आकर ले गया। बीथिका अपने घर तो चली गई, मगर अपने पीछे सवाल छोड़ गई कि आखिर उसका कसूर क्या था? जिन संबंधों पर उसने भरोसा किया आखिर उन्होंने ही क्यों उसकी जिंदगी में शूल बो दिए?



Thursday 5 April 2012

फैला ज्योति का प्रकाश



घने अंधेरे में दो पैर आगे बढ़ते जा रहे थे। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था, चारों ओर घुप्प अंधेरा था। ज्योति न जाने कहां चली जा रही थी, उसे खुद भी पता नहीं था। दिमाग में एक अजब सी उलझन चल रही थी, पता नहीं.. क्या। मगर, ज्योति का दिमाग उसका साथ नहीं दे रहा था और अनायास ही वह घने जंगल में बढ़ती चली जा रही थी.. बस चली जा रही थी।
ज्योति को याद आ रही थी आज की सुबह.. चारों ओर शोरगुल सुनकर उसकी आंख खुल गई। इतनी-इतनी तेज आवाजें कहा से आ रही हैं, वह इसके बारे में कुछ सोचती, किसी से कुछ पूछती उससे पहले ही बाबूजी के चिल्लाने की आवाज उसके कानों में पड़ी। बाबूजी.. वह बाबूजी जो कभी ऊंची आवाज में बात भी नहीं करते थे। बाबूजी, जो उससे बेहद प्यार करते थे। वह बाबूजी उसे देखकर और ज्यादा लाल हो गए। उनका पारा और चढ़ गया चिल्लाकर बोले ‘उठ गईं महारानी’। आइए, फिर मां को आवाज लगाते हुए बोले ‘अरे जरा महारानी के लिए जलपान की व्यवस्था करो।’ उसे कुछ भी समझ में नहीं आया कि हुआ क्या है? क्यों उसके प्यारे बाबूजी चिल् ला रहे हैं। देखा, तो दोनों बहनें सहमी हुईं खड़ी थीं और मां रो रही थी। सोचते-सोचते ज्योति की आंखें भर आईं, वह और तेज कदमों से बढ़ चली। दिमाग में सुबह की घटना चल रही थी। ज्योति सोचने लगी, उस पर बिफर कर.. बाबूजी बाबूजी बड़बड़ाते बाहर चले गए। उसे कुछ समझ में नहीं आया, तो ज्योति मां के पास गई, उसे देखकर मां भी बिफर पड़ीं। ‘तू मर क्यो नहीं जाती, क्यों हमें जला रही है। ज्योति को कुछ समझ में न आया कि आखिर क्या हुआ है, मां-बाबूजी क्यों उस पर बिफर रहे हैं। तभी मां की आवाज उसके कानों में पड़ी ‘कहां से करें तेरी शादी, लड़के वाले मुंह फाड़ कर दहेज मांग रहे हैं।’ इतना कहकर मां फिर रो पड़ी। ‘मां तो मना कर दो उन्हें, लड़की दे रहे हो फिर दहेज क्यों दें। दहेज देना और लेना दोनों अपराध है।’ हां-हां बड़ी आई कानून बघारने वाली, तुङो अपनी तो फिकर नहीं है, मगर इन दोनों की तो फिकर कर। जरा गोरी पैदा नहीं हो सकती थी, एक तो पैसा नहीं ऊपर से तेरा रंग। आज तेरे बाबूजी की नौकरी भी चली गई। अरे तू नहीं होती, तो कम से कम चिंता तो नहीं होती। अब सारी जमा-पूंजी तुझमें लगा देंगे, तो क्या खाएंगे। मां उसे जली-कटी सुना रही थी। मां की बात सुनकर ज्योति रोते हुए बोली थी ‘मां कैसी बातें कर रही हो तुम, अरे रंग-रूप क्या मेरे हाथ में है। अच्छा मुङो नहीं करनी शादी, तुम छोटी और अंजू के लिए लड़का देख लो।’ ‘अरे वाह क्या खूब कहा महारानी ने शादी नहीं करनी। अरे जब बड़ी घर में बैठी रहेगी, तो छोटियों का ब्याह कैसे होगा और देखा सरला तुमने. क्या कह रही हैं महारानी।’ पता नहीं बाबूजी कहां से आ गए थे और ज्योति के अंतिम शब्द उन्होंने सुन लिए थे। माता- पिता के तीर से शब्दों से ज्योति का हृदय छलनी हो गया था। और वह दौड़कर अपने कमरे में चली गई और फूट-फूट कर रोने लगीं। रोते-रोते ज्योति की आंख लग गई, जब आंख खुली तो रात हो चुकी थी। पूरा दिन गुजर गया था, पर किसी ने उसकी सुध भी न ली थी। ज्योति का दिल जोर-जोर से रोने का हुआ। वह सिसकती रही। जब रात गहरा गई और सब सोने को चले तो ज्योति चुपचाप घर से निकली और चल पड़ी। कहां यह उसे कुछ पता नहीं था। मगर आज वह अपने जीवन को समाप्त कर बाबूजी की परेशानी को कम करना चाहती थी। उसे सोच लिया था कि आज वह अपना जीवन समाप्त कर लेगी, उसके मरने से बाबूजी को उसकी शादी की फिक्र तो नहीं रहेगी, और छोटी-अंजू की शादी भी अच्छे से हो जाएगी। ज्योति.. को याद आ रहा था अपना बचपन। कितने लाड़-प्यार से बाबूजी ने उसका नाम ज्योति रखा था.. हमेशा कहते कि वह उनकी बेटी नहीं बेटा है। उसकी हर जरूरत पूरी करते और ज्योति भी उनकी हर ख्वाहिश को पूरा करती। हमेशा अव्वल आती.. और उसे याद आया वह दिन जब ग्रेजुएशन में उसने यूनिवर्सिटी टॉप किया था, तो बाबूजी कितने खुश हुए थे..। सारे पड़ोसियों को मिठाई बांटी थी और.. और उसकी सफलता की खुशी में उसे एक स्कूटी गिफ्ट की थी। यह सोचकर ज्योति के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई, लेकिन.. तभी उसे याद आई आज का दिन.. जब उसके बाबूजी ने उसके मरने की कामना की थी। ज्योति की आंखों से आंसू झरने लगे.. उसने दुपप्टे से आंखें पोंछी और अपने कदमों को और तेज कर दिया..। घड़ी पर नजर डाली, तो दो बज रहे थे वह और तेज कदमों से चलने लगी। आज वह अपनी जिंदगी को खत्म कर देगी, ताकि उसके बाबूजी खुश रहें.. यही सब सोचते हुए ज्योति बढ़ती चली जा रही थी।  तभी उसे पीछे से आवाज आई ज्योति, ज्योति ..। ज्योति घबरा गई, उसने अपने कदमों को और तेज कर लिया, वह डर तो रही थीं लेकिन साथ ही साथ वह उस आवाज से भी दूर भागना चाहती थी, मौत का खौफ नहीं था उसके अंदर, क्यूंकि घर से अपनी मौत की ख्वाहिश ही तो लेकर निकली थी वो, लेकिन ना जाने उस आवाज से क्यूं घबरा रही थी वो । उसे फिर आवाज आई, अरे ज्योति सुनो तो, ज्योति ने हिम्मत कर पीछे मुड़कर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया। उसने रात के सन्नाटे में जहां हवा की चलने की आवाज भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी वहां अपनी तेज और कांपती आवाज में पूछा था ‘कौन-कौन.. कौन हो तुम’। तभी उन हवाओं के शोर और रात के काले अंधेरे के बीच को चीरती हुई आवाज आई थी मैं .. प्रकाश ..। प्रकाश कौन प्रकाश?  बिना रूके ही पूछ बैठी थी ज्योति और बिना रूके ही फिर अंधेरे में अपना भी एक सवाल उछाल दिया था जिधर से वो आवाज आई थी उसी दिशा में -- मैं  किसी प्रकाश को नहीं जानती। तुम्हारा प्रकाश। मेरा .. प्रकाश श् श् श् श् ..  आश्चर्य और विस्मय के मिश्रित भाव के बीच जोरदार आवाज में फिर चिल्लाई थी ज्योति.. तुम सामने क्यों नहीं आते। मैं तो तुम्हारे साथ ही हूं.. ज्योति। तुम्हारे जीवन का प्रकाश.. तुम्हारे जीवन का प्रकाश ..श् श् श्..। तुम मुङो नहीं देख पा रही हो क्या। ज्योति ने गौर से उस आवाज को सुनने की कोशिश की और काफी जद्दोजहद के बाद उसे समझ में आया कि अरे यह आवाज तो सचमुच उसके अंदर से उसकी आत्मा से ही आ रही है। वह गौर से अपने अंदर से उठती इस आवाज को सुनने लगी थी। उसकी आत्मा की आवाज उससे अब भी सवाल पर सवाल किए जा रहा था, ज्योति कहां जा रही हो तुम ? तुम ये क्या करने जा रही हो? अपने जीवन का अंत करना चाहती हो तुम? क्या तुम बुजदिल हो ? ऐसे अनगिनत सवाल का एक ही जबाब सूझ रहा था ज्योति को ....  हां, तभी तो सब खुश हो पाएंगे मेरे घर में, तभी तो पूरा घर जी पाएगा अपनी बिंदास जिंदगी, अगर मेरे मरने से ही सब कुछ अच्छा हो सकता है तो अपनी मौत लेकर ही मैं सबको खुश देखना चाहूंगी ... बड़े सिसकते अंदाज में रूंधे गले के बीच ज्योति के हलक से इतनी ही आवाज निकल पाई थी। तभी उस आवाज ने फिर से कहा, गलत कह रही हो तुम  ज्योति। सोचो जरा जब तुम्हारी मौत की खबर बाबूजी को मिलेगी, तो उन पर क्या बीतेगी। जीते जी मर जाएंगे वो और अंजू, छोटी। तुम सोचती हो कि उनकी शादियां हो जाएंगी। नहीं ज्योति ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम्हारी मौत की खबर उनकी मौत का पैगाम होगी। अरे सोचो जरा समाज में तरह-तरह की बातें होंगी और फिर उनकी शादियां कैसे होंगी उनकी शादियां सोचो जरा। उस आवाज की बातों में दम था और ज्योति उसकी दमदार आवाज के सामने सकपका गई थी। मगर  हिम्मत कर ज्योति ने कहा नहीं.. झूठ कह रहे हो तुम, ऐसा कुछ नहीं होगा। बाबूजी चाहते हैं मैं मर जाऊं..  तभी तो उन्होंने वह सब कहा। तुम्ही बताओ.. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या-क्या बाबूजी ऐसा कहते सिसक पड़ी ज्योति। तभी धीमें से उस आवाज ने ज्योति को संबोधित करते हुए कहा हौसला रखो ज्योति.. ऐसा कुछ नहीं है, जैसा तुम सोचती हूं। तुम्हारे बाबूजी थोड़ा परेशान हैं बस.। मगर सोचो तुम्हारे इस कदम का क्या असर पड़ेगा सोचो जरा। और ज्योति सोच में पड़ गई तभी धीरे से उस आवाज ने कहा  तुम ज्योति हो, ज्योति..जो दूसरों की जिंदगी में प्रकाश फैलाती है और तुम खुद अपने जीवन प्रकाश को बुझाने चली हो। नहीं.. ज्योति नहीं। ये गलत है, गलत है ये सब।  अब घर जाओ, सबको संभालो और सबकी जिंदगी में अपनी रोशनी भर दो। जाओ घर। न जाने उस आवाज में कैसा सम्मोहन था कि ज्योति के कदम वापस घर की ओर मुड़ पड़े। जब वह घर पहुंची, तो सबेरा हो चुका था और सूर्य का प्रकाश जहां को रोशन कर रहा था। ज्योति ने दरवाजा खोला, तो उसे आश्चर्य हुआ। बाबूजी उसे ढूंढ रहे थे। उसे देखते ही उन्होंने लगे से लगा लिया। मां ने प्यार से सिर पर हाथ फेरा। उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या हुआ? तभी बाबूजी ने कहा अरे तू इंस्पेक्टर बन गई ज्योति। और उनकी आंखें भर आईं। ये देख तेरा पोस्टिंग ऑर्डर.. ज्योति ने बाबूजी के हाथ से लिफाफा लिया और ऑर्डर निकालकर पढ़ने लगी। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उसने दोस्तों से पैसा उधार लेकर जो इंस्पेक्टर की परीक्षा दी थी, उसमें वह पास हो गई है। तभी बाबूजी ने कहा कि तू  सच में हमारे घर की ज्योति है। देख तुङो नौकरी मिल गई। मेरी ज्योति अब इंस्पेक्टर बन गई, तूने मेरा सिर ऊंचा कर दिया बेटा। घर में सबकी खुशी देखकर ज्योति ने दरवाजे की ओर देखा, तो उसे लगा कि उसके प्रकाश से सारा घर रोशन हो रहा है।


Ritu saxena: क्यों बसा है मन में ये खौफ

Ritu saxena: क्यों बसा है मन में ये खौफ

क्यों बसा है मन में ये खौफ



आजकल लड़कियों में एक अलग तरह का डर समाया हुआ है। यह डर उन्हें किसी व्यक्ति विशेष या परिस्थिति से नहीं है, बल्कि यह खौफ है शादी से। अपनी शादी से। यूं तो हमारे यहां मान्यता है कि हर व्यक्ति को एक जीवनसाथी की जरूरत होती है, जो उसके हर सुख-दुख में सहयोग करे और यह साथी विवाह के बाद उसे मिलता है। जिससे आप अपनी हर बात साझा कर सकते हैं, जो आपके सुख-दुख में आपके साथ होता है। लड़कियों के लिए तो शादी और जरूरी समझी जाती है, क्योंकि कहा जाता है कि उन्हें हर मोड़ पर किसी सहारे की जरूरत होती है और यह सहारा होता है उसका पति। यह भी कहते सुना है कि लड़कियां खुली तिजोरी की तरह होती हैं, इसलिए जरूरी है कि कोई हो, जो उनका संरक्षक बने। इतनी सब कहावतों के बाद भी जब कानों में यह शब्द पड़ते हैं कि शादी न बाबा न। अरे बहुत डर लगता है इस रिश्ते से। पता नहीं क्या होगा? तो समझ नहीं आता आखिर क्यों है ये खौफ?
हाल ही में मेरी मुलाकात अपनी कुछ पुरानी सहेलियों से हुई। कॉलेज फ्रेंड्स।  बातें ही चल रही थीं कि अचानक से दीप्ति (जिसके लिए उसके परिवार वाले अभी लड़का ढूंढ रहे हैं) ने कहा यार मैं तो तंग आ गई हूं। शादी की बातें सुन-सुनकर। घरवालों को तो बस मेरी शादी की फिक्र है, रोज सिर्फ एक ही बात शादी-शादी-शादी। तभी उसने धीरे से कहा डर लगता है मुङो। घबरा जाती हूं शादी की बात सुनकर। जब कोई कहता है कि शादी कर लो, तो समझ नहीं पाती कि क्या जवाब दूं। बहुत खौफ लगता है। सिहर उठती हूं मैं यार। इतना कहते हुए उसका गला भर आया। खैर हम सबने उसे सहानुभूति दी। तभी अंजलि (जिसकी शादी अभी तय ही हुई है) का भी स्वर उभरा, यार क्यों जरूरी है शादी? क्या हम अभी नहीं रह रहे हैं अकेले। यार बहुत खुश हैं हम अपनी जिंदगी से। लगता है अब यह जिंदगी खत्म हो जाएगी। यह खुशियां, यह दोस्ती सब खत्म और वह फफक कर रो पड़ी। उनकी बातें सुनकर मैं भी सिहर उठी, क्योंकि मैं भी उसी दौर से गुजर रही हूं, जिससे वह और मुङो भी डर लगता है इस नए रिश्ते के जुड़ने से? थोड़ी देर बात दोनों सामान्य हुईं और हम लोगों ने खाना खाया फिर एक-दूसरे से विदा ली। वो दोनों चली तो गईं, मगर मेरे मन में अनगिनत सवाल उठने लगे कि आखिर क्यों डर लगता है शादी से? क्यों है मन में ये खौफ? आखिर क्यों? सोचने लगी कि कहीं यह अपनी स्वतंत्रता छिनने का डर तो नहीं है? या फिर जिम्मेदारी उठाने के लिए खुद को अपरिपक्व मानना? या कुछ ऐसा, जिसे शब्दों में बयां नहीं कर पा रहे हैं? समझ में नहीं आ रहा था कि जब शादी जरूरी है, तो फिर यह खौफ क्यों? मुङो अपने सवालों के जवाब नहीं मिल  पा रहे हैं, अगर आपके पास हों, तो जरूर बताइए इस खौफ से निजात का तरीका।

Wednesday 7 March 2012

कौन ज्यादा बीहड़ दिल्ली या चंबल?



अपनी बात की शुरुआत कहां से करूं समझ नहीं आ रहा। उस चंबल की घाटी से, जहां मैं पैदा हुई और जहां के बारे में ढ़ेरों किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। जहां डाकू पैदा होते हैं या फिर तिग्मांशू धूलिया की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के मुख्य किरदार के मुताबिक बागी पैदा होते हैं। जहां दिन में भी जाने में डर लगता है या फिर देश की राजधानी दिल्ली से, जहां आए चार साल हो चुके हैं और जहां की जिंदगी की आदत हो गई है। जब दिल्ली में सरेआम लुट रही नारी की अस्मिता और दिन-दहाड़े लूट, कत्ल के बारे में सुनती हूं, तो सोचने को विवश हो जाती हूं कि कौन ज्यादा बीहड़ है दिल्ली या फिर चंबल।शुरू से अब तक आमतौर पर छोटे शहरों या उभरते महानगरों की जिंदगी देखी। टीकमगढ़, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल, हरिद्वार, देहरादून और अब दिल्ली। टीकमगढ़ से दिल्ली तक के सफर में हर जगह एक बात समान थी, वहां महिलाएं अपने घर से निकलते समय किसी अनजाने भय के माहौल में घिरी नहीं रहती थीं। अंधेरा घिरने के पहले लौट आना उनकी आदत भले हो, मजबूरी नहीं थी। वहां के माहौल में मैंने कभी अपने को असुरक्षित महसूस नहीं किया, लेकिन दिल्ली में तो दिन भी डराते हैं और यहां रात तो महिलाओं के लिए खौफ का दूसरा नाम है। आए दिन महिलाओं से बलात्कार और अपहरण या फिर हत्या की खबरें अखबारों और चैनलों की सुर्खियां बनती रहती हैं। ऐसा नहीं कि वहां लूट-मार, छीना-झपटी या महिलाओं के प्रति बदनियती की घटनाएं नहीं होतीं, लड़कियों और औरतों की अस्मत पर घात लगाने वाले दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं, लेकिन दिल्ली में तो ऐसे लोग बेलगाम होकर घूम रहे हैं। जब मैं इस डर के बारे में सोचती हूं तो पाती हूं कि घटनाएं-दुर्घटनाएं हर जगह होती हैं, लेकिन वहां मरहम लगाने वाले लोग होते हैं। खासकर लड़कियों के मामले में तो ऐसा होता है कि पड़ोसी की बेटी को लोग अपनी बेटी की निगाह से देखते हैं। कम से कम अपनी गली में घुसते ही सुरक्षा का अतिरिक्त  भाव मन में पैदा हो जाता है, ऐसा लगता है कि अपना ही घर है। लेकिन यहां गली में घुसने के बाद भी कदमों की रफ्तार धीमी नहीं होती। पता नहीं कौन फब्तियां कस कर चला जाए। हद तो यह है कि मोहल्ले वाले तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। आज जब मेरा दिल्ली में रहना एक सच्चाई है, इस पूरे मामले को नए नजरिए से देखने की जरूरत महसूस करती हूं। इस उदासीनता के पीछे की वजह शायद यह है कि उन्हें पता है कि दिल्ली में रहने वाली अधिकतर कामकाजी लड़कियां दिल्ली की नहीं, बल्कि अन्य राज्यों से आई हैं। लिहाजा बगैर किसी प्रतिक्रिया के वे ऐसी घटनाओं से मुंह मोड़ लेते हैं। स्त्रियों के खिलाफ अपराध पूरी दुनिया में होते हैं। विकसित अमेरिका हो या इंग्लैंड, कोई भी इससे शून्य होने का दावा नहीं कर सकता। देश में ही जिन जगहों पर मैं रही वहां ये आंकड़े शून्य नहीं होंगे। फिर भी ऐसा क्या है जो दिल्ली को ‘असुरक्षित’ बनाता है?

Monday 5 March 2012

हमें दया नहीं अपना हक चाहिए


अजीब लगता है, हम पर दया करना,
आखिर क्यों? ये भीख देते हो हमें
एक दिन हमारे सम्मान में
देते हो भाषण, करते हो वादे
कहते हो कि हमारे बिना अधूरी है दुनिया
पर सच बताओ क्या इसे महसूस करते हो तुम
रखो दिल पर हाथ और पूछो खुद से
क्या सच में देना चाहते हो हमें सम्मान?
या फिर अपने को महान बताने के लिए
ये भी तुम्हारा एक हथकंडा है
नहीं चाहिए हमें तुम्हारी दया
जानते हैं हम
हमारी क्षमता को
समय-समय पर हमने तुम्हें दिखाई है
अपनी क्षमताएं
तुमने भी माना है हमारा लोहा
पर आह पुरुष का तुम्हारा अहंकार
यह मानने से तुम्हें रोकता है
कि हमसे है तुम्हारा अस्तित्व,
हमसे जुड़ी है तुम्हारी नाभिनाल,
एक गाड़ी के दो पहिए हैं हम दोनों
फिर क्यों तुम हमें बराबर नहीं मानते
क्यों हमें वह दर्जा नहीं देते
जिसके हकदार हैं हम।
हमें दया नहीं अपना हक चाहिए
चाहिए वो स्थान
जो हमारा है और हमारा रहेगा।



Tuesday 14 February 2012

ये काफिले यादों के कहीं खो गये होते..



उर्दू के महान शायर और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता प्रो. कुंवर अखलाक मोहम्मद खान उर्फ शहरयार नहीं रहे। वे फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित थे, उन्होंने अंतिम सांस 13 फरवरी 2012 को रात आठ बजे अलीगढ़ में अपने निवास पर ली। सोमवार देर रात जैसे ही यह खबर टीवी पर फ्लैश हुई, तो एक पल के लिए सांसे थम सी गईं। शहरयार उर्दू के उन शायरों में शुमार हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी को एक खासा मुकाम दिलाया। उन्होंने अपनी शायरी के माध्यम से समाज, देश की विडंबना को व्यक्त किया। शहरयार को ज्ञानपीठ सम्मान, उर्दू साहित्य में उनके योगदान के लिए दिया गया था। हिंदी फिल्मों के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने दिल्ली के सिरीफोर्ट अडिटोरियम में हुए 44वें ज्ञानपीठ समारोह में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करते हुए कहा था कि शहरयार सही मायने में आम लोगों के शायर हैं।
शहरयार ने कुछ फिल्मों के गाने भी लिखे, जो बेहर मशहूर हुए। उन्होंने उमराव जान, गमन, अंजुमन जैसी फिल्मों के गीत लिखे। हालांकि वह खुद को फिल्मी शायर नहीं मानते थे और न कहलाना पसंद करते थे। उनका कहना था कि अपने दोस्त मुजफ्फर अली के खास निवेदन पर उन्होंने फिल्मों के लिए गाने लिखे हैं। यूं शहरयार चर्चा में उमराव जान में लिखी उनकी गजलों के प्रसिद्ध होने के बाद आए। अब इसे हमारे दौर की विडंबना ही कहा जाएगा कि एक बेहतरीन शायर को प्रसिद्धि फिल्मों में लिखी उसकी गजलों से मिली, जबकि वह एक लंबे समय से गजलें लिख रहे थे। बहरहाल अच्छा शायर इस शोहरत व नाम की परवाह करता तो शायद कुछ और करता शायरी न करता।
शहरयार की शायरी में मानवीय संवेदनाएं और सामाजिक स्थिति का बखूबी चित्रण मिलता है। उनकी शायरी में सियासती चालों का भी वर्णन मिलता है। बदलते वक्त के साथ कम होती मानवीय संवेदनाओं को वह कुछ यूं बयां करते हैं-
‘खून में लथ-पथ हो गये साये भी अश्जार के
कितने गहरे वार थे खुशबू की तलवार के
इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाजे इजहार के
आओ उठो कुछ करें सहरा की जानिब चलें
बैठे-बैठे थक गये साये में दिलदार के
रास्ते सूने हो गये दीवाने घर को गये
जालिम लम्बी रात की तारीकी से हार के
बिल्कुल बंजर हो गई धरती दिल के दश्त की
रुखसत कब के हो गये मौसम सारे प्यार के’
शहरयार ने शायरी की और हमारे दौर के दर्द, उदासी, खालीपन समेत अनेक चीजों को उसमें पिरोते गए। ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं, जुस्तजू जिस की थी उसको तो न पाया हमने, दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिये, कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’ जैसे गीत लिख कर हिंदी फिल्म जगत में शहरयार बेहद लोकप्रिय हुए।
देश, समाज, सियासत, प्रेम, दर्शन - इन सभी को अपनी शायरी का विषय बनाने वाले शहरयार बीसवीं सदी में उर्दू के विकास और उसके विभिन्न पड़ावों के साक्षी रहे हैं। उनकी शायरी आम लोगों की शायरी थी। शहरयार ने अपनी शायरी में उर्दू के आसान शब्दों का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि शायरी ऐसी होनी चाहिए, जो आम लोगों की समझ में आए। उनकी शायरी न तो कोई परचम लहराती है और न ही कोई ऐलान करती है। उनकी शायरी में एक सहजता है, जो बड़ी से बड़ी बातों को आसानी से कहने की क्षमता रखती है। उनके जाने से एक युग का अंत हुआ। महान शायर को अंतिम विदाई देते हुए बस इतना ही कहा जा सकता है-
‘ये काफ़िले यादों के कहीं खो गये होते,
इक पल अगर भूल से हम सो गये होते।’

Saturday 11 February 2012

इतने हिंसक क्यों हो रहे हैं छात्र



गुरुवार को चेन्नई के एक स्कूल में एक छात्र ने अपनी शिक्षिका की चाकू से गोंद कर हत्या कर दी। इस खबर ने खबरिया चैनलों और अखबारों में सुर्खियां भी बटोरी। खबर में बताया गया कि छात्र शिक्षिका द्वारा अभिभावकों से उसकी शिकायत करने को लेकर नाराज था। इस खबर ने एक ओर जहां चौंका दिया, वहीं यह सोचने को भी विवश कर दिया कि आखिर इसका कारण क्या है? क्यों इस तरह की वारदातें सामने आ रही हैं? हमारे देश में जहां गुरु को गोविंद का सम्मान दिया जाता है, वहां इस तरह की घटनाएं क्या सिद्ध करती हैं?
ऐसा नहीं है कि यह केवल एक घटना हो, जिसमें छात्र ने शिक्षक के ऊपर हमला किया हो।  विभिन्न स्कूलों और विश्वविद्यालयों में आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं। इन हमलों में कई बार शिक्षक की जान भी चली जाती है। लगभग एक साल पहले भोपाल में ऐसी ही घटना हुई। छात्रों ने एक टीचर की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी। कुछ सालों पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा एक टीचर के मुंह पर कालिख पोतने की घटना भी प्रकाश में आई थी। इसके अलावा कुछ सालों पहले सागर विश्विद्यालय के अंतर्गत एक कॉलेज में कुछ छात्रों ने परीक्षा के दौरान नकल से रोकने पर शिक्षक की धुनाई कर दी थी। विडंबना यह है कि इस तरह की घटनाएं होने के बाद भी उन पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई जा रही है। बल्कि दिनों-दिन इस तरह के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। पिछले कुछ सालों पर हम नजर डालें, तो छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ी है। शिक्षकों पर हमलों की बात छोड़ दें, तो अपने सहपाठियों के साथ उनका अक्रामक रूख समय-समय पर सामने आता रहता है। तकरीबन एक साल पहले ही राजधानी दिल्ली में एक छात्र ने किसी बात पर अपने सहपाठी को रिवॉल्वर से गोली मार दी थी। इसके अलावा रोजना हम अपने आस-पास भी रोज ऐसी घटनाएं देखते हैं, जहां छोटी-छोटी बातों पर छात्रों में लड़ाइयां होती हैं और कई बार वह लड़ाइयां काफी हिंसक हो जाती हैं। लेकिन बड़ी बात यह है कि आखिर ऐसे मामलों के पीछे की वजह क्या है? क्यों छात्रों के अंदर आक्रामक प्रवृत्ति बढ़ रही है? 
इस मामले पर अपोलो अस्पताल की मनोवैज्ञानिक डॉक्टर अरुणा ब्रूटा कहती हैं कि ऐसे मामलों के पीछे सबसे बड़ी वजह है कि हम छात्रों का आंकलन करे बिना ही उनसे ज्यादा उम्मीदें करने लगते हैं। उनकी क्षमता क्या है, यह नहीं समझते बल्कि उन पर अपनी अपेक्षाएं लाद देते हैं, जो उनमें फ्रस्ट्रेशन पैदा कर देता है। नतीजा उनमें हिंसक प्रवृत्ति का जन्म। अरुणा कहती हैं कि इसके अलावा नैतिक मूल्य आज नहीं है। हर जगह बच्चों के अधिकार, बच्चों के अधिकार  का शोर है। ऐसे में बच्चों के मन में यह घर कर जाता है कि उन्हें उनके अधिकारों से काफी कम मिल रहा है। इसके अलावा उन्हें घर या बाहर कहीं भी कोई ऐसा इंसान नहीं दिखाई देता, जिसे वो अपना रोल मॉडल बना सकें। घर पर माता-पिता का झगड़ा, स्कूल में शिक्षकों की आपसी खींचतान में उन्हें नैतिक मूल्य नहीं मिल पा रहे हैं। कहीं भी अधिकारों के साथ कर्तव्यों की बात नहीं की जा रही है। इस वजह से भी वह हिंसक हो रहे हैं और तीसरा व अहम कारण है उन्हें खुद को व्यक्त करने का मौका नहीं मिल पा रहा है। वह अपनी मौलिकता नहीं दर्शा पा रहे हैं, इस वजह से उनके अंदर तनाव, ईष्र्या और चिड़चिड़ापन आ जाता है और इस तरह की घटनाओं को वे अंजाम देते हैं। 
इन कारणों से यही साबित होता है कि बच्चों के अंदर इस तरह की हिंसक प्रवृत्तियों के लिए हमारा परिवेश जिम्मेदार है। कहते हैं कि बच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं, उन्हें जैसा परिवेश दिया जाए, वही वैसे ही बन जाते हैं। इसलिए बच्चों पर दोषारोपण करने से पहले जरूरी है कि हम अपनी परवरिश और परिवेश पर ध्यान दें और उनके सामने ऐसे उदाहरण पेश करें कि वह उस जैसा बनना चाहें न कि उनके अंदर ईष्र्या और हिंसा उत्पन्न हो।