Sunday 23 February 2014

डर जरूरी है



कुछ दिनों पहले एक टीवी चैनल पर एक कार्यक्रम देख रही थी। कार्यक्रम अपराधियों की सजा पर केंद्रित था। मुख्य बिंदु था फांसी। क्या किसी अपराधी को फांसी की सजा देना, उस अपराध के कम होने की गारंटी है? क्या फांसी जैसी सजा से अपराध रुकते हैं? अभी तक जिन अपराधों में अपराधी को फांसी की सजा हुई है, तो क्या वह अपराध फिर नहीं दोहराए गए? ऐसे ही तमाम मुद्दों पर बहस हो रही थी। कोई सजा के पक्ष में था, तो कोई सजा के विपक्ष में।
     मैं भी सोच रही थी कि सजा किसी अपराध को कम करने की गारंटी तो नहीं है। लेकिन तभी कार्यक्रम को लीड करने वाले एक मशहूर पत्रकार का एक शब्द मेरे कानों में पड़ा और मैं सोच में पड़ गई कि  आखिर ये क्या कह रहे हैं? उन्होंने एक व्यक्ति जो सजा के पक्ष में था और जिसका कहना था कि हां लोगों को डराने के लिए सजा जरूरी है। उसके इस वक्तव्य पर मशहूर पत्रकार महोदय ने कहा कि अगर डराना ही मकसद था, तो लोकतंत्र की क्या जरूरत थी?
    अब तक जो मैं सजा और अपराध की रोकथाम पर सोच रही थी, अचानक एक झटका लगा और मुझे अपने पत्रकार होने पर शर्म महसूस हुई। मैं सोचने लगी कि कैसे यह इतना गैर जिम्मेदराना बयान वह भी एक सार्वजनिक मंच पर दे रहे हैं। महाशय कह रहे हैं कि डराना मकसद है, तो लोकतंत्र क्यों? मेरा उन महाशय जी से पूछना है कि लोकतंत्र का अर्थ क्या है? या फिर उनकी नजर में क्या है? वह क्या सोचते हैं लोकतंत्र के बारे में? क्या लोकतंत्र का अर्थ यह है कि जो मरजी हो, सो करो। फिर चाहे वह किसी मासूम का बलात्कार हो या किसी के घर को जलाना या फिर देश में आतंक फैलाना। आखिर लोकतंत्र है और हमारे संविधान में भी हमें कहीं भी रहने, आने-जाने और काम करने की आजादी मिली है?  तो भई हमारा तो यही काम  है कि हम आतंक फैलाएंगे, मासूम की अस्मिता से खेलेंगे, किसी को मारेंगे और भी बहुत कुछ करेंगे, जो हमारा मन कहेगा वह करेंगे। भई लोकतंत्र जो है। शायद ये महाशय इसी लोकतंत्र की बात कर रहे थे। भई आओ लूट लो खेल रही एक ढाई साल की बच्ची की अस्मत। कर दो उसकी हत्या अधिकार है, तुम्हें लोकतंत्र जो है।
     अरे, आप ये मत समझिए कि मैं किसी सजा के पक्ष में हूं या फिर सजा ही एक मात्र जरिया नजर आता है, मुझे अपराध रोकने का। लेकिन यह तो आप भी मानते होंगे कि बिना डर के प्रीत नहीं होती और रामचरित मानस में भी कहा गया है ‘भए  बिनु होइ न प्रीत।’ मानती हूं सजा से अपराध नहीं रुकेंगे। जरूरत है मानसिकता बदलने की। लेकिन रातों-रात तो लोगों का दिमाग नहीं बदला जा सकता। वक्त लगेगा। तब तक क्या? किसी भी बात को रोकना होता है, तो डर जरूरी होता है और यह डर लोगों में सजा से ही होगा।
      इसके लिए आप बच्चे का उदाहरण देख सकते हैं। एक बच्चा खेल-खेल में मिट्टी खाता है। उसके लिए सही नहीं है यह। उसकी मां उसे बताती है कि बेटा यह गलत बात है, लेकिन बच्चे पर असर नहीं होता। वह फिर मिट्टी खाता है, अब मां उसे दो थप्पड़ मारती है। बच्चा रोता है। लेकिन मां पिघलती नहीं। उसका अंजाम देखा है न आपने। अगली बार जब वह बच्चा मिट्टी खाने के लिए हाथ बढ़ाता है, उसे मां की मार याद आ जाती है और मिट्टी नहीं खाता। फिर धीरे-धीरे उसकी लत छूट जाती है। सो भई डर जरूरी है और डर के लिए सजा जरूरी है। हां, वह सजा कुछ भी हो सकती है, जो आप चाहें वह रख लें। फांसी हो ऐसा जरूरी नहीं। लेकिन आपके संविधान में सबसे क्रूर सजा तो यही है न। आप कुछ और बताओ। वह दिलवाओ। लेकिन डर जरूरी है।