Thursday 5 April 2012

क्यों बसा है मन में ये खौफ



आजकल लड़कियों में एक अलग तरह का डर समाया हुआ है। यह डर उन्हें किसी व्यक्ति विशेष या परिस्थिति से नहीं है, बल्कि यह खौफ है शादी से। अपनी शादी से। यूं तो हमारे यहां मान्यता है कि हर व्यक्ति को एक जीवनसाथी की जरूरत होती है, जो उसके हर सुख-दुख में सहयोग करे और यह साथी विवाह के बाद उसे मिलता है। जिससे आप अपनी हर बात साझा कर सकते हैं, जो आपके सुख-दुख में आपके साथ होता है। लड़कियों के लिए तो शादी और जरूरी समझी जाती है, क्योंकि कहा जाता है कि उन्हें हर मोड़ पर किसी सहारे की जरूरत होती है और यह सहारा होता है उसका पति। यह भी कहते सुना है कि लड़कियां खुली तिजोरी की तरह होती हैं, इसलिए जरूरी है कि कोई हो, जो उनका संरक्षक बने। इतनी सब कहावतों के बाद भी जब कानों में यह शब्द पड़ते हैं कि शादी न बाबा न। अरे बहुत डर लगता है इस रिश्ते से। पता नहीं क्या होगा? तो समझ नहीं आता आखिर क्यों है ये खौफ?
हाल ही में मेरी मुलाकात अपनी कुछ पुरानी सहेलियों से हुई। कॉलेज फ्रेंड्स।  बातें ही चल रही थीं कि अचानक से दीप्ति (जिसके लिए उसके परिवार वाले अभी लड़का ढूंढ रहे हैं) ने कहा यार मैं तो तंग आ गई हूं। शादी की बातें सुन-सुनकर। घरवालों को तो बस मेरी शादी की फिक्र है, रोज सिर्फ एक ही बात शादी-शादी-शादी। तभी उसने धीरे से कहा डर लगता है मुङो। घबरा जाती हूं शादी की बात सुनकर। जब कोई कहता है कि शादी कर लो, तो समझ नहीं पाती कि क्या जवाब दूं। बहुत खौफ लगता है। सिहर उठती हूं मैं यार। इतना कहते हुए उसका गला भर आया। खैर हम सबने उसे सहानुभूति दी। तभी अंजलि (जिसकी शादी अभी तय ही हुई है) का भी स्वर उभरा, यार क्यों जरूरी है शादी? क्या हम अभी नहीं रह रहे हैं अकेले। यार बहुत खुश हैं हम अपनी जिंदगी से। लगता है अब यह जिंदगी खत्म हो जाएगी। यह खुशियां, यह दोस्ती सब खत्म और वह फफक कर रो पड़ी। उनकी बातें सुनकर मैं भी सिहर उठी, क्योंकि मैं भी उसी दौर से गुजर रही हूं, जिससे वह और मुङो भी डर लगता है इस नए रिश्ते के जुड़ने से? थोड़ी देर बात दोनों सामान्य हुईं और हम लोगों ने खाना खाया फिर एक-दूसरे से विदा ली। वो दोनों चली तो गईं, मगर मेरे मन में अनगिनत सवाल उठने लगे कि आखिर क्यों डर लगता है शादी से? क्यों है मन में ये खौफ? आखिर क्यों? सोचने लगी कि कहीं यह अपनी स्वतंत्रता छिनने का डर तो नहीं है? या फिर जिम्मेदारी उठाने के लिए खुद को अपरिपक्व मानना? या कुछ ऐसा, जिसे शब्दों में बयां नहीं कर पा रहे हैं? समझ में नहीं आ रहा था कि जब शादी जरूरी है, तो फिर यह खौफ क्यों? मुङो अपने सवालों के जवाब नहीं मिल  पा रहे हैं, अगर आपके पास हों, तो जरूर बताइए इस खौफ से निजात का तरीका।

1 comment:

  1. नौजवानी बिना पंखों के उड़ने की उम्र होती है। हर एक को चाहे वह लड़का हो या लड़की पूरा आकाश मिलना चाहिए। खौफ तब पैदा होता है जब आकाश छोटा पड़ जाता है और आपके टकराने और गिरने की आशंका होती है इसलिए मां-बाप अपने जवान बच्चों को लेकर बहुत फिक्रमंद रहते हैं। अपने अनुभव से उन्हें पता है कि कल क्या हो सकता है इसलिए वे चाहते हैं कि बच्चे सेटल हो जाएं। अपना घर बसायें और वे चैन की सांस ले। यह फिक्र लड़का-लड़की दोनों को लेकर है, लेकिन लड़की को लेकर फिक्र ज्यादा होती है, यह सच है और इसके कारण भी हैं। हर लड़की को उन कारणों को समझना चाहिए। तभी वे अपने अभिभावकों की चिंताओं को समझ सकेंगी।
    इसके बाद सबसे जरूरी बात, खुद को समझना। हम क्या चाहते हैं? अगर आपने जिंदगी का कोई खास मकसद तय रखा है तो उस पर परिवार में जरूर बात करना चाहिए। सवाल शादी करने या न करने का नहीं है। सवाल है आप कैसे जीना चाहते हैं? क्या करना चाहते हैं। बदलाव तो तय है, आप शादी करें या न करें। विद्यार्थी जीवन जैसी स्वछंदता फिर कभी नहीं मिलती। जिम्मेदारी से भागा नहीं जा सकता। यह बोझ तो उठाकर ही कम किया जा सकता है। जो लोग शादी न करने और अकेले जीने की डींग हांकते हैं। वे बहुत जल्दी पाला बदल लेते हैं। हां, कभी मकसद इतना बड़ा हो जाता है कि शादी का ख्याल ही नहीं आता
    फिलहाल शादी का कोई विकल्प नहीं है। लिव इन रिलेशनशिप में खतरे हजार हैं। वह हर लड़की के बस की बात नहीं। जो उसके बस में है वह है अपनी इच्छा, अपनी शर्तों पर जीवनसाथी पाना। इसलिए जल्दबाजी में निर्णय कभी नहीं करना चाहिए। जब आप कुछ तय कर लेते हैं तो खौफ कम हो जाता है। आप जिस खौफ की बात कर रही हैं, वह शादी को लेकर नहीं, बल्कि अनिश्चितता को लेकर है। हम जिस दकियानूसी समाज में रहते हैं उसने हर रिश्ते में खौफ की दीवारें खड़ी कर रखी हैं। कई बार नासमझ मां-बाप भी इस खौफ का इस्तेमाल अपने बच्चों के खिलाफ ही करते हैं। ऐसे हालात में लोग भगवान के बिल में घुस जाते हैं, लेकिन समाधान वहां भी नहीं है। समाधान तो अपने भीतर है।
    हम क्या चाहते हैं। हमारी अपनी बात क्या है। क्या हमें सजी धजी आज्ञाकारी गुडि़या की तरह जीना है या हम अपनी पूरी शख्सियत के साथ अपनी तरह जीना चाहते हैं। अपनी तरह जीने के अपने खतरे हैं। जो धारा के विरुद्ध चलते हैं, उन्हें खतरे तो उठाने ही पड़ते हैं और धारा के साथ अगर अपनी मर्जी से चलेंगे तब भी खतरे कम नहीं होेंगे। तो जब खतरे उठाना ही है तो किसी से जुड़कर उठाएं क्या पता वो सचमुच का जीवनसाथी साबित हो और दोनों मिलकर कोई नया रास्ता बना लें। बहरहाल आप और आपकी सभी सहेलियों को शुभकामनाएं
    अपनी गजल का एक शेर आप सबके लिए
    फिक्र करते कि हम दुआ करते
    जूझने के सिवा और क्या करते
    नरेंद्र मौर्य
    (वक्त मिले तो मेरा ब्लाॅग http://sumarnee.blogspot.in/ देखना)

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