Thursday 23 January 2014

कौन ज्यादा बीहड़ दिल्ली या चंबल ?


अपनी बात की शुरुआत कहां से करूं समझ नहीं आ रहा। उस चंबल की घाटी से, जहां मैं पैदा हुई और जहां के बारे में ढेरों किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। जहां डाकू पैदा होते हैं या फिर तिग्मांशू धूलिया की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के मुख्य किरदार के मुताबिक बागी पैदा होते हैं। जहां दिन में भी जाने में डर लगता है या फिर देश की राजधानी दिल्ली से, जहां आए पांच साल हो चुके हैं और जहां की जिंदगी की आदत हो गई है। जब दिल्ली में सरेआम लुट रही नारी की अस्मिता और दिन-दहाड़े लूट, कत्ल के बारे में सुनती हूं, तो सोचने को विवश हो जाती हूं कि कौन ज्यादा बीहड़ है दिल्ली या फिर चंबल।
शुरू से अब तक आमतौर पर छोटे शहरों या उभरते महानगरों की जिंदगी देखी। टीकमगढ़, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल, हरिद्वार, देहरादून और अब दिल्ली। टीकमगढ़ से दिल्ली तक के सफर में हर जगह एक बात समान थी, वहां महिलाएं अपने घर से निकलते समय किसी अनजाने भय के माहौल में घिरी नहीं रहती थीं। अंधेरा घिरने के पहले लौट आना उनकी आदत भले हो, मजबूरी नहीं थी। वहां के माहौल में मैंने कभी अपने को असुरक्षित महसूस नहीं किया, लेकिन दिल्ली में तो दिन भी डराते हैं और यहां रात तो महिलाओं के लिए खौफ का दूसरा नाम है। 16 दिसंबर 2012 की रात को भूलना आसान नहीं है। देश के रौंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना के बाद कितना हल्ला हुआ। इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन तक हम पहुंच गये। हमारी सुरक्षा ने हमें सारे कानून तोड़ने पर मजबूर कर दिया। उस दौरान हमने डंडे भी खाए, चोट भी लगी। कमेटी बनी, सिफारिशें आईं और कानून भी बने। तब लगा कि अब दिल्ली में रातें नहीं डराएंगी। अब हम सुरक्षित घर से  निकल पाएंगे,  लेकिन एक साल गुजर जाने के बाद भी लड़कियों के प्रति बदनीयती या क्रूरता राजधानी में कम नहीं हुई। आज भी यहां की रातें डराती हैं। दिल वालों की दिल्ली कही जाने वाली राजधानी में अभी भी ऑफिस से निकलते हुए जब थोड़ी देर हो जाती है, तो कदमों की रफ्तार अपने-आप बढ़ जाती है। मनचलों की फबतियों और पीछा करते पैरों के बीच मैट्रो तक का रास्ता जल्द तय करने की जल्दबाजी में कई बार चोट भी लग जाती है, लेकिन दिल का डर कदमों  की रफ्तार को कम नहीं होने देता। सुबह जब अखबार खोलो, तो किसी न किसी पेज पर महिलाओं से बलात्कार और अपहरण या फिर हत्या की खबरें मिल ही जाती हैं। यह खबरें अखबारों और चैनलों की सुर्खियां बनती रहती हैं। ऐसा नहीं कि अब तक मैं जहां रही वहां लूट-मार, छीना-झपटी या महिलाओं के प्रति बदनियती की घटनाएं नहीं होतीं, लड़कियों और औरतों की अस्मत पर घात लगाने वाले दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं, लेकिन दिल्ली में तो ऐसे लोग अभी भी बेलगाम होकर घूम रहे हैं।
जब मैं इस डर के बारे में सोचती हूं तो पाती हूं कि घटनाएं-दुर्घटनाएं हर जगह होती हैं, लेकिन वहां मरहम लगाने वाले लोग होते हैं। खासकर लड़कियों के मामले में तो ऐसा होता है कि पड़ोसी की बेटी को लोग अपनी बेटी की निगाह से देखते हैं। कम से कम अपनी गली में घुसते ही सुरक्षा का अतिरिक्त  भाव मन में पैदा हो जाता है, ऐसा लगता है कि अपना ही घर है। लेकिन यहां गली में घुसने के बाद भी कदमों की रफ्तार धीमी नहीं होती। पता नहीं कौन फब्तियां कस कर चला जाए। हद तो यह है कि मोहल्ले वाले तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। आज जब मेरा दिल्ली में रहना एक सच्चाई है, इस पूरे मामले को नए नजरिए से देखने की जरूरत महसूस करती हूं। इस उदासीनता के पीछे की वजह शायद यह है कि उन्हें पता है कि दिल्ली में रहने वाली अधिकतर कामकाजी लड़कियां दिल्ली की नहीं, बल्कि अन्य राज्यों से आई हैं। लिहाजा बगैर किसी प्रतिक्रिया के वे ऐसी घटनाओं से मुंह मोड़ लेते हैं। स्त्रियों खिलाफ अपराध पूरी दुनिया में होते हैं। विकसित अमेरिका हो या इंग्लैंड, कोई भी इससे शून्य होने का दावा नहीं कर सकता। देश में ही जिन जगहों पर मैं रही वहां ये आंकड़े शून्य नहीं होंगे। फिर भी ऐसा क्या है जो दिल्ली को ‘असुरक्षित’ बनाता है?

No comments:

Post a Comment