Tuesday 14 February 2012

ये काफिले यादों के कहीं खो गये होते..



उर्दू के महान शायर और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता प्रो. कुंवर अखलाक मोहम्मद खान उर्फ शहरयार नहीं रहे। वे फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित थे, उन्होंने अंतिम सांस 13 फरवरी 2012 को रात आठ बजे अलीगढ़ में अपने निवास पर ली। सोमवार देर रात जैसे ही यह खबर टीवी पर फ्लैश हुई, तो एक पल के लिए सांसे थम सी गईं। शहरयार उर्दू के उन शायरों में शुमार हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी को एक खासा मुकाम दिलाया। उन्होंने अपनी शायरी के माध्यम से समाज, देश की विडंबना को व्यक्त किया। शहरयार को ज्ञानपीठ सम्मान, उर्दू साहित्य में उनके योगदान के लिए दिया गया था। हिंदी फिल्मों के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने दिल्ली के सिरीफोर्ट अडिटोरियम में हुए 44वें ज्ञानपीठ समारोह में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करते हुए कहा था कि शहरयार सही मायने में आम लोगों के शायर हैं।
शहरयार ने कुछ फिल्मों के गाने भी लिखे, जो बेहर मशहूर हुए। उन्होंने उमराव जान, गमन, अंजुमन जैसी फिल्मों के गीत लिखे। हालांकि वह खुद को फिल्मी शायर नहीं मानते थे और न कहलाना पसंद करते थे। उनका कहना था कि अपने दोस्त मुजफ्फर अली के खास निवेदन पर उन्होंने फिल्मों के लिए गाने लिखे हैं। यूं शहरयार चर्चा में उमराव जान में लिखी उनकी गजलों के प्रसिद्ध होने के बाद आए। अब इसे हमारे दौर की विडंबना ही कहा जाएगा कि एक बेहतरीन शायर को प्रसिद्धि फिल्मों में लिखी उसकी गजलों से मिली, जबकि वह एक लंबे समय से गजलें लिख रहे थे। बहरहाल अच्छा शायर इस शोहरत व नाम की परवाह करता तो शायद कुछ और करता शायरी न करता।
शहरयार की शायरी में मानवीय संवेदनाएं और सामाजिक स्थिति का बखूबी चित्रण मिलता है। उनकी शायरी में सियासती चालों का भी वर्णन मिलता है। बदलते वक्त के साथ कम होती मानवीय संवेदनाओं को वह कुछ यूं बयां करते हैं-
‘खून में लथ-पथ हो गये साये भी अश्जार के
कितने गहरे वार थे खुशबू की तलवार के
इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाजे इजहार के
आओ उठो कुछ करें सहरा की जानिब चलें
बैठे-बैठे थक गये साये में दिलदार के
रास्ते सूने हो गये दीवाने घर को गये
जालिम लम्बी रात की तारीकी से हार के
बिल्कुल बंजर हो गई धरती दिल के दश्त की
रुखसत कब के हो गये मौसम सारे प्यार के’
शहरयार ने शायरी की और हमारे दौर के दर्द, उदासी, खालीपन समेत अनेक चीजों को उसमें पिरोते गए। ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं, जुस्तजू जिस की थी उसको तो न पाया हमने, दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिये, कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’ जैसे गीत लिख कर हिंदी फिल्म जगत में शहरयार बेहद लोकप्रिय हुए।
देश, समाज, सियासत, प्रेम, दर्शन - इन सभी को अपनी शायरी का विषय बनाने वाले शहरयार बीसवीं सदी में उर्दू के विकास और उसके विभिन्न पड़ावों के साक्षी रहे हैं। उनकी शायरी आम लोगों की शायरी थी। शहरयार ने अपनी शायरी में उर्दू के आसान शब्दों का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि शायरी ऐसी होनी चाहिए, जो आम लोगों की समझ में आए। उनकी शायरी न तो कोई परचम लहराती है और न ही कोई ऐलान करती है। उनकी शायरी में एक सहजता है, जो बड़ी से बड़ी बातों को आसानी से कहने की क्षमता रखती है। उनके जाने से एक युग का अंत हुआ। महान शायर को अंतिम विदाई देते हुए बस इतना ही कहा जा सकता है-
‘ये काफ़िले यादों के कहीं खो गये होते,
इक पल अगर भूल से हम सो गये होते।’

2 comments:

  1. मेरे सबसे प्रिय शायरों में से एक थे शहरयार!
    बेहद दुःख हुआ था ये दुखद खबर सुन कर..

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  2. शब्दों की झोपड़ी में ज्ञान का दीपक हमेशा जलता रहता है..............गहन प्रेरक अभिव्यक्ति...आभार

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